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तुमने ऐसे लोग देखे होंगे जो मौन रहते हैं, फिर वे कभी बोलते ही नहीं। उनका मौन वाणी के विरुद्ध दिखाई पड़ता है -और वह मौन जो कि वाणी के, बोलने के विरुद्ध हो, फिर भी वह वाणी का ही हिस्सा है। वह अभाव है, उपस्थिति नहीं।
मेरा मौन वाणी का अभाव नहीं है। मेरा मौन एक मौजूदगी है। वह तुम से बात कर सकता है, वह तुम्हें गीत सुना सकता है; मेरे मौन में अपार ऊर्जा है। उसमें किसी तरह की रिक्तता नहीं है; वह एक परिपूर्णता है।
आज इतना ही।
प्रवचन 65 - अस्तित्व के शून्यों का एकात्रीकरण
योग-सूत्रः
सर्वार्थतैकाग्रतयो: क्षयोदयो चित्तस्य समाधिपारिणाम:।। ||
समाधि परिणाम वह आंतरिक रूपांतरण है, जहां चित को तोड़ने वाली अशांत वृत्तियों का क्रमिक ठहराव आ जाता है और साथ ही साथ एकाग्रता उदित होती है।
शांन्तोदितौ तुल्यप्रत्ययो चित्तस्यैकाग्रतापरिणाम:।। 12//
एकाग्रता परिणाम वह एकाग्र रूपांतरण है, चित्त की ऐसी अवस्था है, जहां चित का विचार-विषय जो कि शांत हो रहा होता है, वह अगले ही क्षण ठीक वैसे ही विचार विषय दवारा प्रतिस्थापित हो जाता
एतेन भूतेन्दियेषु धर्मलक्षणावस्थापरिणामा व्याख्याताः।। 13।। जो कुछ अंतिम चार सूत्रों में कहा गया है, उसके द्वारा मूल-तत्वों और इंद्रियों की विशिष्टताओं, उनके गुण-धर्म और उनकी अवस्थाओं के रूपांतरणों की व्याख्या भी हो जाती है।