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ठीक ऐसे ही है जब दो विचारों के बीच के अंतरालों पर ध्यान दो, तो विचारों की बैलगाड़ियां, विचारों की वह भीड़ जिसने कि जीवन को पूरी तरह अस्त-व्यस्त कर दिया था, धीरे -धीरे दूर होने लगता
है और चैतन्य का प्रवाह थिर होने लगता है।
इसे ही पतंजलि 'समाधि परिणाम', आंतरिक रूपांतरण – कहते हैं।
'जहां चित्त को तोड्ने वाली अशांत वृत्तियों का क्रमिक ठहराव आ जाता है और साथ ही साथ एक उदित होती है।'
तब दो बातें होती हैं। एक ओर तो अशांत अवस्थाएं शांत हो जाती हैं और दूसरी ओर एकाग्रता का जन्म होने लगता है।
जब तुम्हारे मस्तिष्क में बहुत ज्यादा विचार भरे होते हैं, उस समय तुम एक नहीं होते हो, विभक्त होते हो। उस समय तुम एक चेतना नहीं होते, उस समय भीड़ की तरह होते हो, तुम्हारे भीतर विचारों की भीड़ ही भीड़ होती है। जब तुम्हारे भीतर विचारों की भीड़ चल रही हो, और तुम विचारों को देख रहे होते हो, तो तुम अपने ही भीतर अलग अलग भागों में विभक्त हो जाते हो, उतने ही भागों में विभक्त हो जाते हो जितने कि मन में विचार चल रहे होते हैं। प्रत्येक विचार तुम्हारे अस्तित्व को विभक्त करता चला जाता है।
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तुम बहु- चित्तवान हो जाते हो, एक मन नहीं रह जाते हो। तब तुम एक नहीं रह जाते हो, तुम बंट जाते हो, क्योंकि प्रत्येक विचार में तुम्हारी ऊर्जा प्रवाहित होती है, जो कि तुम्हें विभक्त कर देती है और वह विचारों की भीड़ सभी दिशाओं में चारों ओर दौड़ती रहती है तुम करीब करीब विक्षिप्तता की अवस्था में पहुंच जाते हो।
मैंने एक कथा सुनी है
एक वृद्ध स्कॉटिश गाइड एक नव लिए लेकर गया। जब वह थका
गया।
निर्वाचित पादरी को एक पथरीले इलाके में तीतर के शिकार के मादा वापस आया तो आग के सामने अपनी कुर्सी खींचकर बैठ
उसकी पत्नी ने कहा, 'कस, तुम्हारे लिए गर्म – गर्म चाय लायी हूं। यह तो बताओ कि क्या यह नया पादरी अच्छा निशानेबाज है?"
उस वृद्ध आदमी ने पहले अपने पाइप का एक कश भरा, फिर जवाब दिया, 'हां, वह अच्छा निशानेबाज है। लेकिन सच में यह भी कितना चमत्कार है कि जब वह गोली चलाता है, तो परमात्मा की कृपा पक्षियों की रक्षा करती है।'