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इस बात को समझना थोड़ा कठिन है कि परमात्मा हमेशा अलग - अलग रूपों में संसार में आता रहता है, और मनुष्य हमेशा परमात्मा में वापस लौट जाने का प्रयास करता है-इसीलिए मनुष्य संसार को छोड़कर, संसार को त्याग कर जगल की ओर भागता है, संन्यासी हो जाता है, और परमात्मा हमेशा उत्सव और आनंद के रूप में संसार में वापस लौटता रहता है।
मनुष्य का परमात्मा की तरफ लौटना, और परमात्मा का अनेक- अनेक रूपों में संसार में लौटना, दोनों ही सत्य हैं। अगर परमात्मा और संसार दोनों अलग – अलग हैं, तो पृथक रूप में दोनों अधूरे हैं, आशिक हैं; लेकिन परमात्मा और संसार दोनों साथ -साथ होकर एक सत्य बन जाते हैं, एक समग्र
सत्य।
अगर धर्म केवल त्याग ही त्याग है, तो वह आधा है। धर्म तभी पूर्ण हो सकता है, जब वह सृजनात्मक भी हो। धर्म व्यक्ति को स्वयं में उतरना तो सिखाए ही, लेकिन धर्म को साथ ही यह भी सिखाना चाहिए कि वापस बाहर संसार में फिर से कैसे आना। क्योंकि इसी भीतर आने और जाने के बीच, कहीं घाटी और शिखर के बीच ही परमात्मा और मनुष्य का मिलन संभव होता है।
अगर तुम परमात्मा को चूकते हो. और पूरी संभावना इसी बात की है, क्योंकि अगर तुम पर्वत पर चढ़ रहे हो और परमात्मा पर्वत से उतर रहा है, तो तुम उसकी ओर देखोगे भी नहीं। हो सकता है परमात्मा को पर्वत से उतरता हुआ देखकर तुम्हारी आंखों में निंदा का भाव भी हो-कि यह कैसा परमात्मा है, जो फिर से घाटी की ओर जा रहा है? शायद तुम परमात्मा की ओर इस दृष्टि से भी देख सकते हो कि 'इससे तो मैं ही ज्यादा पवित्र हूं।'
स्मरण रहे जब भी कभी परमात्मा से तुम्हारा मिलना होगा, तुम उसे संसार की ओर वापस लौटता हुआ पाओगे; और तुम संसार को त्यागकर जा रहे होओगे। इसीलिए तुम्हारे तथाकथित साधु -संत, कभी नहीं समझ पाते कि परमात्मा यानी क्या। तुम्हारे ये तथाकथित साधु -संत परमात्मा के बारे में बनी-बनाई मृत धारणा को ही ढोते चले जाते हैं, उन्हें मालूम ही नहीं है कि परमात्मा यानी क्या? क्योंकि वे तो अपनी बनी-बनाई मृत धारणाओं के कारण परमात्मा को हमेशा चूकते ही चले जाते हैं अगर कहीं मार्ग पर परमात्मा से तुम्हारा मिलना भी हो जाए, तो तुम उसे पहचान न सकोगे, क्योंकि तुम्हारी सड़ी-गली धारणाओं के कारण तो तुम्हें परमात्मा भी पापी मालूम होगा, कि परमात्मा और संसार को ओर वापस लौट रहा है!
लेकिन अगर ऐसे लोग पर्वत की चोटी पर पहुंच भी जाएं तो वे उसे खाली पाएंगे। संसार की घाटी भरी हुई है, लेकिन पर्वत की चोटी तो एकदम खाली है। ऐसे लोग वहां परमात्मा को नहीं पाएंगे, क्योंकि परमात्मा तो हमेशा किसी न किसी रूप में संसार में वापस लौट रहा होता है। अलग-अलग आकारों में अलग - अलग रूपों में हमेशा सृजन कर रहा होता है। उसका सृजन तो न समाप्त होने वाला सृजन है। उसका सृजन तो अनंत है। परमात्मा का स्वयं का कोई रूप या आकार नहीं है। उसके