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तुम कहां जा रहे हो? तुम्हारी नियति क्या है? तुम्हें कुछ निश्चित वस्तुएं प्राप्त कर लेना है, यह बात सिखाई जाती है। तुम इस संसार में कुछ प्राप्त करने के लिए बने हो। मन को इसी ढंग से किसी तरह से खींच -तानकर तैयार किया जाता है। मन को बाहर से -माता-पिता, परिवार, शिक्षा, समाज, और सरकार द्वारा नियंत्रित किया जाता है। सभी का बस यही प्रयास है कि व्यक्ति अपनी नियति को उपलब्ध न हो सके। और यही लोग तुम्हारे लिए लक्ष्य निर्धारित करते हैं, और व्यक्ति उस जाल में गिर पड़ता है। और जबकि लक्ष्य तो पहले से ही भीतर मौजूद है।
कहां जाना नहीं है। स्वयं की पहचान, स्वयं का बोध पाना है कि मैं कौन हैं। और जब स्वयं का बोध हो जाता है, तो फिर कहीं भी जाओ लक्ष्य की प्राप्ति हो ही जाएगी, क्योंकि वह लक्ष्य तुम अपने साथ ही लिए हुए हो। तब कहीं भी जाओ, एक गहन परितृप्ति साथ ही रहती है। तब तुम्हारे चारों ओर एक शीतल और शांत आभा सी छाई रहती है। उसे ही पतंजलि संयम कहते हैं. एक शीतल, निर्मल, शांत आभा –मंडल जो कि तुम्हारे साथ -साथ गतिमान होता है।
फिर जहां कहीं भी तुम जाओ, तुम्हारा आभा-मंडल तुम्हारे साथ -साथ रहता है और कोई भी इसको अनुभव कर सकता है। दूसरे लोग भी इसका अनुभव करते हैं, चाहे उन्हें इस आभा-मंडल का पता चलता हो या न चलता हो। अगर कोई संयमवान व्यक्ति तुम्हारे निकट आ जाए, तो अचानक ही तुम्हें अपने आसपास एक तरह की शीतल, शांत, ठंडी हवा की अनुभूति होती है, कोई अज्ञात सुवास
उसके पास से आती हुई मालूम होती है। वह सुवास तुम्हें भी छू लेती है, और शांत कर जाती है। वह किसी मीठी लोरी की भांति होती है।
तुम अशांत थे, और अगर कोई संयमवान व्यक्ति तुम्हारे निकट आ जाए, तो अचानक तुम्हारी अशांति कम होने लगती है। तुम क्रोध में थे, अगर संयमी व्यक्ति निकट आ जाए, तो तुम्हारा क्रोध गायब हो जाता है। क्योंकि संयमवान व्यक्ति की अपनी एक चुंबकीय शक्ति होती है। उसकी तरंगों पर सवार होकर तुम भी तरंगायित हो जाते हो। ऐसे व्यक्ति के सान्निध्य में, उसके सत्संग में तुम अधिक ऊपर उड़ान भर सकते हो, जितना कि अकेले में संभव नहीं होता है।
इसलिए पूरब में हमने एक सुंदर परंपरा का निर्माण किया, कि जो व्यक्ति संयम को उपलब्ध है, उनके निकट जाओ और उनके पास बैठो। इसे ही हम दर्शन, इसे ही हम सत्संग कहते हैं संयम को उपलब्ध व्यक्ति के निकट जाना और उसके पास रहना। पश्चिम के लोगों को यह बात समझ नहीं आती है, क्योंकि कई बार ऐसा होता है कि वह व्यक्ति कछ बोलता ही नहीं है, वह मौन ही रहता है। और लोग आते रहते हैं, और उसके पांव छूते रहते हैं, उसके पास आंख बंद करके बैठे रहते हैं, किसी तरह की कोई बातचीत नहीं, कोई शाब्दिक संवाद नहीं, और वे घंटों बैठे रहते हैं; और फिर जब वे भर जाते हैं, तृप्त हो जाते हैं, तो वे गहन अनुग्रह से पांव छूकर चले जाते हैं। और अगर व्यक्ति थोड़ा भी संवेदनशील हो, तो देख सकता है कि कोई चीज उनके बीच संप्रेषित हो गई कुछ उपलब्ध हो गया है।