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व्यक्ति को स्वयं के भीतर जाना होता है, और योग की पूरी की पूरी प्रक्रिया तीर्थयात्रा है अंतर्यात्रा है। एक-एक कदम के माध्यम से, आठ चरणों के द्वारा पतंजलि वापस घर की ओर ले जा रहे हैं। पहले पांच चरण-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार–वे शरीर से पार स्वयं की गहराई में उतरने में मदद करते हैं। शरीर पहली सतह है, अस्तित्व का पहला संकेंद्रित घेरा है। दूसरा चरण है, मन के पार जाना। धारणा, ध्यान, समाधि तीन आंतरिक चरण मन के पार ले जाते हैं। शरीर और मन के पार है स्वभाव, और यही अस्तित्व का भी केंद्र है। अस्तित्व के उसी केंद्र को पतंजलि निर्बीज समाधिकैवल्य' कहते हैं। पतंजलि उसे ही अपने अस्तित्व का, अपने मूल केंद्र का साक्षात्कार करना और यह जान लेना कि मैं कौन हं, कहते हैं।
तो पूरी की पूरी यात्रा को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है।
पहला: शरीर का अतिक्रमण कैसे करना।
दूसरा: मन का अतिक्रमण कैसे करना।
और तीसरा स्वयं के अस्तित्व से कैसे मिलना।
करीब -करीब पूरी दुनिया में, सभी संस्कृतियों में, सभी देशों में, कोई सा भी परिवेश क्यों न हो, उसमें हमें शिक्षा दी जाती है कि लक्ष्य की, उद्देश्य की प्राप्ति हमें स्वयं से बाहर कहीं करनी है। और वह लक्ष्य चाहे धन -संपत्ति का, सत्ता, पद –प्रतिष्ठा का हो, या वह लक्ष्य परमात्मा या स्वर्ग की प्राप्ति का हो, इससे कुछ अंतर नहीं पड़ता है सभी लक्ष्य और उद्देश्य तुमसे बाहर हैं। और सच्चा लक्ष्य है, जहां से हम आए हैं, उस स्रोत में वापस लौट जाना। तभी वर्तुल पूरा होता है।
बाहर के सभी लक्ष्यों को गिराकर भीतर जाना है। यही योग का संदेश है। बाहर के सभी लक्ष्य आरोपित होते हैं। और तुम्हें बस यही सिखाया जाता है कि कहीं जाना है। वे कभी भी स्वाभाविक नहीं होते; वे स्वाभाविक हो नहीं सकते हैं।
मैंने जी के चेस्टरटन के बारे में सुना है कि
एक बार जब वे रेलगाड़ी में सफर कर रहे थे तो कुछ पढ़ रहे थे। जब कंडक्टर ने उन्हें टिकट दिखाने को कहा, तो चेस्टरटन ने घबराकर इधर -उधर अपनी जेब टटोलना शुरू कर दी।
'श्रीमान जी, कोई बात नहीं,' कंडक्टर ने आश्वस्त होकर कहा, 'मैं थोड़ी देर बाद आऊंगा। मुझे पक्का भरोसा है कि टिकट आपके पास है।'
'मुझे मालूम है कि टिकट मेरे पास है,' चेस्टरटन ने हकलाते हुए कहा, 'लेकिन मैं तो यह जानना चाहता हूं कि आखिर मैं जा कहां रहा हूं?'