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अपने स्वभाव की ही सुनना। पतंजलि और झेन तुम्हारे लिए हैं, तुम उनके लिए नहीं। धर्म मनुष्य के लिए है, मनुष्य धर्म के लिए नहीं। सभी धर्म तुम्हारे लिए हैं, न कि तुम धर्मों के लिए। तुम्ही लक्ष्य
हो।
तीसरा प्रश्न:
जब मैं अपने भाव-विचार और अंतस की आवाज को सुनता हूं तो वे मुझे कहते हैं कि कुछ भी मत करो बस खाओ- पीओ, सोओ और समुद्र के किनारे घूमो मजा करो। मुझे यह मानकर चलने में डर भी लगता है क्योंकि साथ ही मुझे लगता है कि मैं इतना कमजोर हो जाऊंगा कि इस संसार में जीना कठिन हो जाएगा। जब मैं अपने को अस्तित्व के हाथों में छोड़ दूंगा तो क्या अस्तित्व मुझे सम्हाल लेगा?
पहली बात. इस संसार में बने रहने की कोई आवश्यकता नहीं है। यह संसार एक पागलखाना है।
इसमें बने रहने की कोई जरूरत नहीं है। महत्वाकांक्षा, राजनीति और अहंकार के संसार में बने रहने की जरा भी जरूरत नहीं है। यही है रोग। लेकिन एक और भी ढंग है होने का, जो कि धार्मिक ढंग है. कि तुम संसार में रहो, और संसार तुम में न रहे।
'जब मैं अपने भाव –विचार और अंतस की आवाज को सुनता हूं, तो वे मुझे कहते हैं कि कुछ भी मत करो।'
तो कुछ भी मत करो। तुमसे ऊपर कोई नहीं है, और परमात्मा तुमसे सीधे बात करता है। अपनी अंतस की अनुभूतियों पर भरोसा रखो। फिर कुछ भी मत करो।
अगर तुम्हें लगता है कि 'बस खाओ –पीओ, सोओ और समुद्र के किनारे घूमो, मजा करो', तो यह बिलकुल ठीक है। इसे ही तुम्हारा धर्म होने दो। फिर भयभीत मत होओ।
तुम्हें भय को गिराना होगा। और अगर यह प्रश्न आंतरिक अनुभूति और भय के बीच चुनाव करने का हो, तो आंतरिक अनुभूति को ही चुनना। भय को मत चुनना। इस तरह बहुत से लोगों ने अपना धर्म भय के कारण चुन लिया है, इसीलिए वे कैद में जीते हैं। ऐसे लोग न तो धार्मिक हैं और न ही सांसारिक। ऐसे लोग डांवाडोल स्थिति में जीते हैं।