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और किसी तरह का कहीं कोई शाब्दिक संप्रेषण नहीं होता है –प्रकट रूप से कुछ भी लिया–दिया नहीं गया है। सत्संग का अर्थ है सत्य को उपलब्ध, प्रामाणिक, संयमी व्यक्ति के साथ होना।
उसके सान्निध्य में रहने मात्र से ही, तुम्हारे भीतर भी कुछ होने लगता है, तुम्हारे भीतर भी कुछ प्रतिसंवेदित होने लगता है।
लेकिन संयम की अवधारणा बहत ही गलत की जाती है, क्योंकि लोग संयम को बाहर से आरोपित करते हैं। लोग बाहर से स्वयं को शांत करना शुरू कर देते हैं, वे एक तरह की शांति का, मौन का अभ्यास कर लेते हैं, वे स्वयं को एक विशेष अनशासन के ढांचे में ढाल लेते हैं। बाहर से देखने पर वे संयमपूर्ण व्यक्ति जैसे ही मालूम पड़ते हैं। वे जरूर संयमी जैसे दिखेंगे, लेकिन वे होंगे नहीं। और अगर उनके निकट तुम जाओ, तो देखने में चाहे वे मौन लगते हों, लेकिन अगर तुम उनके पास मौन होकर बैठो, तो किसी तरह की कोई शांति का अनुभव नहीं होगा। कहीं भीतर गहरे में अशांति छिपी ही रहती है। भीतर से वे ज्वालामुखी की तरह होते हैं। ऊपर सतह पर तो उनके सब कुछ मौन और शांत रहता है, लेकिन भीतर गहरे में ज्वालामुखी किसी भी क्षण फूट पड़ने को तैयार रहता है।
इसे खयाल में ले लेना किसी भी चीज को स्वयं पर जबर्दस्ती आरोपित करने की कोशिश मत करना। किसी भी चीज को स्वयं पर आरोपित करने का मतलब है खंड-खंड हो जाना, निराश और हताश हो जाना, और सच्चाई को, वास्तविकता को चूक जाना क्योंकि तुम्हारे अंतर्तम अस्तित्व को तुम्हारे ही माध्यम से प्रवाहित होना है। तुम्हें तो केवल मार्ग की बाधाएं हटाकर, उसे प्रवाहित होने का मार्ग देना है। तुम्हें स्वयं में कुछ भी नया नहीं जोडना है। सच कहा जाए तो जैसे अभी तुम हो, अगर उसमें कुछ कम हो जाए, तो तुम परिपूर्ण हो जाओगे। कुछ भी नहीं जोड़ना है। तुम पहले से ही परिपूर्ण हो। बस मार्ग में कुछ चट्टानें, कुछ अवरोध आ गए हैं, उन चट्टानों को हटा भर देना है, जिससे कि तुम्हारे भीतर झरना निर्बाध होकर बह सके। अगर मार्ग की उन चट्टानों को हटा दो, तो तुम परिशुद्ध हो ही और जो प्रवाह अवरुद्ध हो गया था, वह फिर से फट पड़ता है।
ये आठ चरण, पतंजलि के ये अष्टांग, मार्ग की चट्टानों को हटा देने का क्रमबद्ध ढंग हैं।
लेकिन मनुष्य बाह्य अनुशासन से इतना प्रभावित क्यों हो जाता है? इसके पीछे जरूर कोई कारण, कोई तर्क होगा। और कारण है। क्योंकि बाह्य रूप से किसी चीज को स्वयं पर आरोपित कर लेना अधिक आसान और सस्ता होता है, क्योंकि उसके लिए किसी तरह का कोई मूल्य नहीं चुकाना पड़ता है। यह तो ठीक ऐसे ही है जैसे कि कोई व्यक्ति सुंदर न हो, लेकिन बाजार से सुंदर मुखौटा खरीदकर चेहरे पर लगा सकता है। यह सस्ता भी है, महंगा भी नहीं है, और इसके द्वारा दूसरों को थोड़ा –बहुत धोखा भी दिया जा सकता है।
लेकिन धोखा ज्यादा देर नहीं दिया जा सकता, क्योंकि मुखौटा निर्जीव होता है, और निर्जीव चीज देखने में तो सुंदर हो सकती है, लेकिन सच में सुंदर नहीं होती। सच कहा जाए तो व्यक्ति पहले से भी