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ही अस्तित्व को, अपने को देख सकते हो। तब स्वयं के भीतर छिपा हुआ खजाना मिल जाता है। पहले तो, छोटे -छोटे अंतरालों के बीच में छोटी-छोटी झलकियां मिलती हैं, फिर धीरे -धीरे अंतराल बड़े होने लगते हैं, तो झलकियां भी बड़ी होने लगती हैं। फिर एक दिन ऐसा आता है छ जब अंतिम विचार बिदा हो जाता है और उसकी जगह कोई दूसरा विचार नहीं आता है, तब एक गहन और शाश्वत मौन छा जाता है। और वही मंजिल है। ऐसा कठिन है, दुष्कर है, लेकिन फिर भी संभव है। ऐसा कहा जाता है कि जब जीसस को सूली दी गई, तो उनकी मृत्यु के थोड़ी देर पहले, एक सिपाही ने केवल यह देखने के लिए कि वे अभी जीवित हैं या नहीं, उनकी छाती में बरछा बेध दिया। वे उस समय भी जीवित थे। जीसस ने अपनी आंखें खोलीं, सिपाही की ओर देखा और बोले, 'मित्र, इसकी अपेक्षा तो इससे एक छोटा मार्ग है जो मेरे हृदय की ओर जाता है।' सिपाही ने तो उनके हृदय में बरछा बेधा था और जीसस कहते हैं, 'मित्र, इसकी अपेक्षा तो इससे एक छोटा मार्ग है, जो मेरे हृदय की ओर जाता है।'
इयों-सदियों से लोग विचारते रहे हैं, कि जीसस का इससे क्या मतलब था। इसकी हजारों व्याख्याएं संभव हैं, क्योंकि यह वचन बहुत ही गहरा है। लेकिन जिस ढंग से मैं इसे देखता हूं और जो अर्थ मुझे इसमें दिखाई पड़ता है, वह यह है कि. अगर तुम अपने ही हृदय में उतरो तो वही सब से निकट का, सबसे छोटा और सुगम मार्ग है जीसस के हृदय तक पहुंचने का। अगर अपने ही हृदय में उतर जाओ? अगर भीतर की ओर चल पड़ो, तो जीसस के अधिक निकट आ जाओगे।
और चाहे जीसस जिंदा हों या न हों, तुम्हें अपने भीतर देखना ही होगा, अपने जीवन का स्रोत खोजना ही होगा; और तब यह जान सकोगे कि जीसस की कभी मृत्यु संभव नहीं है। वे शाश्वत हैं। सूली पर जिस शरीर को चढ़ाया था, वह मर सकता है, लेकिन वे कहीं और प्रकट होंगे। शारीरिक रूप से चाहे वे कहीं प्रकट न भी हों, लेकिन फिर भी वह अनंत के हृदय में समाए रहेंगे।
जब जीसस ने कहा था., 'मित्र, इसकी अपेक्षा तो एक छोटा मार्ग है जो मेरे हृदय की ओर जाता है, उनका अर्थ था : 'स्वयं के भीतर जाओ, अपने स्वभाव को देखो, और तुम मुझे वहा पाओगे। प्रभु का राज्य तुम्हारे भीतर है।' और वह शाश्वत है। वह ऐसा जीवन है जिसका कोई अंत नहीं, वह ऐसा जीवन है जिसकी कोई मृत्यु नहीं।
अगर व्यक्ति निरोध को जान ले, तो उस जीवन को जान लेगा जिसकी कोई मृत्यु नहीं, और जिसका न कोई प्रारंभ है और न ही कोई अंत है।
और एक बार अगर उस दिव्यता का, उस अमृत का स्वाद मिल जाए तो कोई भी बात फिर आकांक्षा नहीं बन सकेगी। तब तो केवल वह स्वाद ही एकमात्र आकांक्षा बन कर रह जाता है। और अंततः वही आकांक्षा समाधि तक ले जाती है। लेकिन अंत में उस आकांक्षा को भी छोड़ देना पड़ता है, उस