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यह मत पूछो कि 'कैसे समर्पण करूं?' बस, देखना और पता लगाना कि अहंकार को क्यों पकड़ रहे हो, क्यों तुम अहंकार को पकड़ने की जिद किए हुए हो।
अगर तुम्हें अभी भी लगता हो कि अहंकार तुम्हारे लिए कोई स्वर्ग ले आएगा, तो प्रतीक्षा करना-फिर समर्पण करने की कोई जरूरत नहीं है। अगर तुम्हें ऐसा लगता है कि सभी आशाएं व्यर्थ और झूठ हैं
और अहंकार से भी सिवाय पीड़ा और दुख के कुछ नहीं मिलता, तब फिर यह पूछने की जरूरत क्या है कि समर्पण कैसे करूं?
किसी पर भी अपनी पकड़ मत बनाओ। सच तो यह है कि जब तुम यह जान लेते हो कि अहंकार आग है तो वह अपने से ही गिर जाता है। फिर उसको पकड़ने का सवाल ही नहीं उठता है, फिर तो वह गिर ही जाता है। जब घर में आग लगी हो, तो किसी से पूछना नहीं पड़ता कि घर से बाहर कैसे आएं, छलांग लगाकर तुम अपने - आप बाहर आ जाते हो।
एक बार ऐसा हुआ, मैं एक घर में मेहमान था, और उस घर के सामने जो घर था, उसमें आग लग गई। वह तीन मंजिल का मकान था, और एक मोटा आदमी जो तीसरी मंजिल पर रहता था, वह खिड़की से कूदने की कोशिश कर रहा था। और नीचे जो भीड़ खड़ी थी वह चिल्ला रही थी, कूदना मत, छलांग मत लगाना; हम सीढ़ी लेकर आते हैं।
लेकिन जब घर में आग लगी हो, तो कौन सुनता है? वह आदमी कूद पड़ा। वह सीढ़ी के आने तक इंतजार नहीं कर सका। और उस समय तक कोई खतरा भी नहीं था, क्योंकि आग केवल पहली मंजिल पर ही लगी थी, तीसरी मंजिल तक पहुंचने में तो समय लगता। और भीड़ में से कुछ लोग सीढ़ी लेने के लिए गए थे। और लोग चिल्ला -चिल्ला कर उससे कह रहे थे, ठहरो, कूदो मत। लेकिन उसने किसी की नहीं सुनी। वह तीसरी मंजिल से कूद पड़ा और उसका पांव टूट गया।
बाद में जब मैं उसे देखने के लिए गया तो मैंने उनसे पूछा, 'आपने' तो कमाल कर दिया। आपने तो पूछा भी नहीं कि कैसे छलांग लगाऊं। क्या आपने पहले भी कभी तीसरी मंजिल से छलांग लगाई है?'
वे कहने लगे, 'कभी नहीं लगाई।'
'क्या कभी इसका अभ्यास किया था?'
वे बोले, 'कभी नहीं।'
'कोई प्रशिक्षण लिया था?'
वे कहने लगे, 'क्या कह रहे हैं आप! ऐसा तो पहली बार ही हआ है!