Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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पत्मचरित का परिषय : २५
(चरित्रवर्णम की दृष्टि से) इस सर्गबन्ध रूप महाकाव्य में एक ही नायक का परित चित्रित किया जाता है। यह मायक कोई विशेष पा पक्ष्यात राणा होता है। यह धीरोदात्त मायक के गुणों से युक्त होता है। किसी-किसी महाकाव्य में एक राजवंश में उत्पन्न अनेक कुलीन राजाओं की भी चरित्र चर्चा दिखाई देती है। (रसाभिव्यंजन की दृष्टि से) क्षार, वीर और शांत रमों में से कोई एक रस प्रधान होता है । इन तीनों रसों में से जो रस भी प्रधान रखा जाय उसकी अपेक्षा अन्य सभी रस अप्रधान रूप से अभिव्यक्त किये जा सकते है। संस्थान रचना की दृष्टि से) नाटक की सभी सन्धिया महाकाव्य में आवश्यक मानी गई है । (इतिवृत्त योजना की दृष्टि में) कोई भी ऐतिहासिक अथवा किसी महापुरुष के जीवन से सम्बद्ध कोई लोकप्रिय वृस यहाँ वर्णित होता है। (उपयोगिता की दृष्टि से) महाकाव्य में धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप पुरुषार्थचतुष्टय का काग्यात्मक निरूपण होता है, किन्तु उत्कृष्ट फल के रूप में किसी एक का ही सर्वतोभद्रनिमन्ध युक्तियुक्त माना जाता है। महाकाव्य का प्रारम्भ मंगलात्मक होता है। यह मंगल नमस्कारात्मक, आशीर्वादात्मक या वस्तु निर्दे। शारमक होता है। किसी-किसी महाकाव्य में खलनिन्दा और सज्जन प्रशंसा मी उपमिबद्ध होती है। इसमें न बहुत छोटे, न बहुत बड़े आठ से अधिक सर्ग होते है। प्रत्येक सर्ग में एक छन्द होता है किन्तु (मर्ग का) अन्तिम पद्य मिन्न छन्द का होता है। कहीं-कहीं सर्भ में अनेक छन्द भी मिलते हैं। सर्ग के अन्त में अगली कथा की सूचना होनी चाहिए । इसमें सन्ध्या, सूर्य, रात्रि, प्रदोष, अम्बकार, दिन, प्रातःकाल, मध्यान, मगया, पर्वत, ऋतु, वन, समुद्र, संयोग, पियोग, मुनि, स्वर्ग, नगर, यज्ञ, संग्राम, विवाह, यात्रा, मन्त्र, पुत्र और अभ्युदय आदि का यथासम्भव सांगोपांग वर्णन होना चाहिए । इसका नाम कवि के नाम से पा चरित्र के नाम से, अथवा चरित्र नायक के नाम से होना चाहिए। सर्ग का वर्णनीय कया से सर्ग का नाम लिखा जाता है। संषियों के अंग महाँ यथासम्भव रखने चाहिए । जलक्रीड़ा, मधुपामाधि सांगोपांग होने चाहिए ।
महाकाव्य के ये उपर्युक्त लक्षण न्यूनाधिक रूप में पदमचरित में घटित होते है। इसे पर्यों में विभाजित किया गया है जोकि सर्ग का ही दूसरा नाम है । काव्य के प्रारम्भ में ऋषभजिनेत्र से लेकर मुनिसुव्रत जिनेन्द्र को नमस्कार करने के साथ-साथ गणधरों सहित अन्यान्य मुनिराजों को मन, वचन, काम से नमस्कार किया गया है । १२२ इस के बाद कवि ने 'पद्मस्य चरितं वक्ष्ये' अर्थात् राम का
१२२. पदमः १५१-१५ ।