Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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२६ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति चरित्र कहूँगा, ऐसा कहकर वस्तुनिर्देश किया है । २१ इसकी रचना राम जैसे उत्कृष्ट महापुरुष की कथा के आधार पर हुई है, जिनके विषय में कवि ने स्वयं कहा है कि अनन्त गुणों के गृहस्वरूप, उवार चेष्टाओं के धारक उमका परित्र कहने में श्रुतकवली ही समर्थ है । १२४ यह काव्य शान्त रस प्रधाम है। आयश्यकतानुसार इसमें शृंगार,२५ भीर,१२५ सामानों परिपक हुआ है। ___इस कथा से धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप विभिन्न प्रयोजनों की सिधि होती है, जिसकी ओर रविषेण ने १२३वें पर्व में स्वयं संकेत किया है ।१२८ इस कथा का प्रमुख उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति की ओर उन्मुख होना ही है । जैसा कि कहा गया है-हे विद्वज्जनो J यत्नपूर्वक एक प्रमुख आत्मपद को तथा नाना प्रकार के वियाफ से परिपूर्ण कर्मों के स्वरस को भली प्रकार जानकर सदा उसी की प्राप्ति में रमण करो। हमने (रविषेणाचार्य ने) इस ग्रन्थ में परमार्थ की प्राप्ति के उपाय कहे हैं, उन्हें काम में शक्तिपूर्वक लाओ जिससे संसार रूपी सागर से पार हो सको ।' १२५ ग्रन्थ के आरम्भ में सज्जनों की प्रशंसा और दुर्गनों की निन्दा की गई है-'जिस प्रकार घूध और पानी के समूह में से हंस समस्त दूध को प्रहण कर लेता है उसी प्रकार सत्पुरुष गुण और दोषों के समूह में से गुणों को ही ग्रहण करते है । जिस प्रकार काक हाथियों के गण्डस्थल से मुक्ताफलों को छोड़कर केवल मांस ही ग्रहण करते है उसी प्रकार दुर्जन गण और दोषों के समूह में से केवल दोषों को ही ग्रहण करते है। जिस प्रकार उलूक पक्षी सूर्य की मूर्ति को तमाल पत्र के समान काली-काली देखते है उसी प्रकार दुष्ट पुरुष
१२३. पद्म० १२१६ ! १२४. अनन्तगुणगेहस्य तस्योक्षरविचेष्टिनः ।
गदितु परितं शक्तः केवलं श्रुतफेवली ।। पद्म ११७ । १२५. पद्म ३।१०६-११०, १५१४१-१४५ । १२६. वही, १२।२६५, २९२, २९३, २८५, २८६ । १२७, वही, १७१९९-१०८।। १२८. वही, १२३।१५७-१६५ । १२९. बहुधा गदिसेन किन्न्धनेन पदमेकं सुमृषा निबुध्य यत्नात् । बहुभेदविपाककर्मसूक्तं तदुपायाप्तिविधी सदा रमश्वम् ।।
--पदम० १२३३१७९ । उपायाः परमार्थस्प कपितास्तत्वतो बुधाः । सेय्यन्तां शक्तितो येन निष्क्रामत भवार्णवात् ।। पदम० १२३३१८० ।