Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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अध्याय ३
मनोरंजन प्रकृति में अन्य जीवारियों की अपेक्षा मानव अधिक विनोदप्रिय है । प्राचीन भारत में लोगों का जीवन आजकल की अपेक्षा सुखी था, उसको जीवन संग्राम में हम लोगों की भांति अधिक व्यस्त नहीं रहना पड़ता था । ऐसी स्पिति में लोगों ने समय-समय पर आनन्द की सष्टि के लिए मनोविनोद के रूप में कलाओं का विकास किया । पद्मचरित में इस विकास के अनेक रूप दिखलाई पड़ते हैं जो निम्नलिखित है
क्रीड़ा क्रीड़ा के भेद-या, रम, नाम डा और इसस, का में से कोड़ा चार प्रकार को होती है।
चेष्टा-शरीर से उत्पन्न होनेवाली क्रीड़ा को चेष्टा कहते हैं । उपकरण-कन्दुक आदि खेलना उपकरण है । बाक्क्रीड़ा-नाना प्रकार के सुभाषिप्त आदि कहना वाक्कोड़ा है। कलाव्यत्यसन- जुआ आदि खेलना कलाच्यत्यसन है।"
शास्त्रनिरूपित चेष्टाओं से क्रीड़ा करना उज्ज्वल क्रीड़ा कहलाती थी । सीता इसी प्रकार को कीड़ायें करने वाली कही गई है।
क्रीडाधाम (क्रीडास्थल)-जहाँ विभिन्न प्रकार के मनोरंजन और भोगोपभोग को पस्तुयें होती थीं उसे क्रोडाघाम कहा जाता था। इस प्रकार के क्रोडा. धाम बनाने के लिए रमणीक स्थान चुनकर वहाँ सब प्रकार की वस्तुयें सुलभ की जाती थीं । राम, लक्ष्मण तथा सीता के लिए क्रीडाधाम बनाने हेतु वंशस्थलपुर के राजा सुरप्रभ की आज्ञा से वंशस्थल पर्वत के शिखर पर शुद्ध दर्पणतल के समान सुन्दर भूमि तैयार की गई। वह पर्वतशिखर अत्यधिक रमणोक था तथा हिमगिरि के शिखर के समान था। वहीं एक समान लम्बे-चौड़े अच्छे रंग के मनोहर शिलाता थे। वह अनेक प्रकार के वृक्षों और लत्ताओं से व्याप्त
१. पद्म २४।६७ । ३. वही, २४१६८! ५. वही, २४॥६९ । ७. वहीं, ४०।२४।
२. पद्म० २४।६७ । ४. वही, २४१६८३ ६. वही, ४०।२६ ।