Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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१८४ : पप्रचरित और उसमें प्रशिविर संस्कृति
काल मादि का ज्ञान होता है। एक उल्लेख के अनुसार प्रासादों में रोने (गवाम) लगाये जाते थे । ३६७
हयं हयं को सात मंजिल वाला भवन कहा है । हर्ग की छत बहुत ऊँची होती थी | महाकवि कालिदास ने अपने मेघदूत काव्य में हम्यं का निर्देश किया है । हH ऊँची अट्टालिका वाले ऐसे भवन थे, जिनमें कपोत भी निवास करते थे। अमर कोष में ( 'हर्यादि घनिनां वासः' अमरकोप २।२।९) घनिकों के भवन को हर्य कहा है।३७.
मन्दिर-मन्दिर शब्द के दो अर्थ है : भवन तथा नगर । रामराङ्गण सूत्रधार (१८ वा अध्याय) में नगर-पर्यायों में मन्दिर शम्द का प्रथम उल्लेख किया गया है । अमरकोश तथा अन्य कोशों में मन्दिर शन्द भवन-वाचक है। प्राचीन भारत के इतिहास पर दष्टि डालेंगे तो पता चलेगा कि बहुत प्राचीन नगर मन्दिर स्थानों के विकास मात्र हैं। संसार के अन्य प्राचीन नगरों की यही कया है । ३६ प्राचीनकाल में किसी देवायतन के पूत पावन भूभाग के निकट थोड़े से जिज्ञासु एवं साधक सज्जनों ने सर्वप्रथम अपने आवासों का निर्माण किया । घोरे-धीरे वह स्थान अपने निजी आकर्षण से एक विशाल तीर्थस्थान या नगर में परिणत हो गया। इसके अतिरिक्त मन्दिर पदि सुचारु रूप से संचालित है तो उसके निकट किसी सुरम्प जलाशय, पुष्करिणी अथवा सरिता का होना आवश्यक है। अतः जीवन की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आवश्यकताओं में जलपूर्ति की साधन सम्पन्नता के कारण मन्दिर के सुन्दर, स्वास्थ्यप्रद एवं पावन वातावरण के कारण यहां आवास स्थापन सहज हो जाता है । ८५ पप्रचरित में राजगृह नगर का वर्णन करते हुए कहा गया है कि उसे शत्रों ने काममन्दिर तथा विज्ञान के ग्रहण करने में तत्पर मनुष्यों ने विश्वकर्मा का मन्दिर ( विश्वकर्मण; मन्दिरम् ) समन्ना था ।१७° पद्मचरित के इस उल्लेख से उपर्युक्त तथ्य की पुष्टि होती है।
सभा--अर्थववेद, तैत्तिरीय संहिता, तैत्तिरीय ब्राह्मण, छान्दोग्य उपनिषद् आदि में सभाओं के निर्देश आये हैं। अति प्राचीन बैदिक युगीन सभाभवनों के विन्यास में दो ही प्रधान उपकरण थे-स्तम्भ तथा वेदिया। सभा एक प्रकार का द्वार, भित्ति आदि से विरहित स्तम्भ-प्रघान निवेश था। प्राचीन सभाभवन
३६७. पद्म० १९।१२२ । ३६७, नेभिचन्द्र शास्त्री : आदिपुराण में प्रतिपादित भारत, पृ. ३०३ । ३६८. भारतीय स्थापत्य, पृ. ५३ । ३६९. वही, पृ० ५४ ।
३७०. पपा २३९, २४१ ।