Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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२६४ : पपवरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति जीव की दशा उत्तम, मध्यम और जघन्य की अपेक्षा तीन प्रकार की कही गई है। अभव्य जीव की दशा जघन्य है, भव्य की मध्यम है और सिद्धों को उत्तम है । १५९ मध्यम भव्य प्राणी शीन ही महान् आनन्द अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर सेते है पर जो असमर्थ है, किन्तु मार्ग को जानते हैं ये कुछ विश्राम करने के बाद महाआनन्द प्राप्त कर पाते हैं । जो मनुष्य मार्ग को न जानकर दिन में सौ-सौ योजन तक गमन करता है वह भटकता हो रहता है तथा चिरकाल तक इष्ट स्थान को प्राप्त नहीं कर सकता।१०
सिद्ध जीव-एमचरित में सिद्ध जोव तथा उनके गुणों का बहुत विस्तार से कम किय: है : मन दम, गन्स ज्ञात वीर्य और अनन्त सुख मह पतुष्टय आत्मा का निज स्वरूप है और बह सिद्धों में विद्यमान है। ये तीन लोक के शिखर पर स्वयं विराजमान है, पुनर्जन्म से रहित है," संसार सागर से पार हो चुके हैं, परमकल्याण से युक्त हैं, मोक्षसुख के आधार है, जिनके समस्त कर्म क्षोण हो चुके हैं,२३२ जो अवगाहन गुण से युक्त हैं, अमृतिक है, सूक्ष्मत्वगुण में राहित है, गुरुता और लघुता से रहित है तथा असंख्यात प्रदेशी हैं ।२३॥ अनन्त गुणों के आधार है, क्रमादि से रहित हैं, आत्मस्वरूप की अपेक्षा समान हैं, आत्म प्रयोजन को अन्तिम सीमा को प्राप्त कर चुके हैं (कृतकृत्य हैं) जिनके भाव सर्वथा शुद्ध है, गमनागमन से विमुक्त २५ हैं, जिनके समस्त क्लेश नष्ट हो चुके हैं,२५५ जो सब प्रकार की सिद्धियों को धारण करने वाले हैं,२५७ जिन्होंने जपमा रहित नित्य शुद्ध, आत्माश्रय, उत्कृष्ट और अत्यन्त दुरासद निर्वाण प्रा मानाज्य प्राप्त कर लिया है। ऐसे मिच जीव होते हैं । सिद्ध भगवान् का जो सुख है वह निस्य है. उत्कृष्ट है, आबाघा से रहित है, अनुपम है और आत्मस्वभाव से उत्पन्न है । चक्रवर्ती सहित समस्त मनुष्य और इन्द्र सहित समस्त देव अनन्तकाल में जिस सांसारिक सुख का उपभोग करते है वह कर्मरहित सिद्ध भगवान के अनन्त, सुख की भी सदशता को प्राप्त नहीं होता, ऐसा सिद्धों का सुख है ।२७०
२५९. पद्म०, ३१०११ ।।
२६०, यही, १४।२२५,२२६ । २६१, वही, ४८१२००,२०१ । २६२. वही, ४८।२०२। २६३, वही, ४८।२०३।
२६४, वही, ४८२०४। २६५. वही, ४८।२०५ ।
२६६. बही, १०५।१९४ । २६७. वही, ४२२०७ ।
२६८. बहो, ८०1१८ । २६९. बहो, १०५।१८१ तत्त्वार्थसूत्र, रा३३। २७०. बही, १०५।१८६-१८७ |