Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 293
________________ धर्म और दर्शन : २८१ अतिक्रामति' कात्यायन श्रौतसू* १०१।१० पयाराभं शदश द्वादशाभ्यः षड् षड् द्वितीयेभ्यश्चतसश्चततश्चतस्त्रस्तुतीयेभ्यस्तिस्रस्तिन इसरेभ्यः' कात्यायन श्रौतसूत्र १०।२।२४) इन एक सौ बारह दक्षिणाओं में से सौ दक्षिणायें देवों के वीर सोम का शोषन करती है, दस दक्षिणायें प्राणों का तर्पण करती है। ग्यारहवीं दक्षिणा आत्मा के लिए है४०२ और जो बारहवीं दक्षिणा है वह केवल दक्षिणा ही है। अन्य दक्षिणाओं का व्यापार तो दोषों के निवारण में होता है।४७३ पशुयज्ञ में यदि पशु पक्ष के समय शब्द करे या अपने अगले दोनों पैरों से छाती पीटे तो हे अनल ! तुम मुझे इससे होने वाले समस्त दोष से मुक्त करो। ०४ इत्यादि रूप दोषों के बहुत से प्रायश्चित्त कहे गए है इनके विषय में अन्य आगम से प्रकृत में विरोध दिखाई देता है। १०५ ___ अपूर्व धर्म का निषेध-पश से अपूर्व धर्म व्यक्त होता है, यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि अपूर्व धर्म तो आकाश के समान नित्य है वह कैसे व्यक्त होगा? और यदि व्यक्त होता ही है तो फिर बह नित्य न रहकर घटादि के समान अनित्य होगा ।१०६ जिस प्रकार दीपक के व्यक्त होने के बाद रूप का झान उसका फल होता है उसी प्रकार स्वर्गादि की प्राप्ति रूपी फल भी अपूर्व धर्म के व्यक्त होने के बाद ही होना चाहिए पर ऐसा नहीं है ।१९७ यज्ञ सम्बन्धी विविध युचियों का खण्डन--ब्रह्मा ने यदि पशुओं की सृष्टि यज्ञ के लिए की है तो फिर पशुओं से बोझा होना आदि काम क्यों लिया जाता है ? इसमें विरोध आता है । विरोध ही नहीं, यह तो थोरी कहलायेगी।४०८ यदि प्राणियों का वध स्वर्ग प्राप्ति का कारण होता तो थोड़े ही दिनों में यह संसार शून्य हो जाता 1४०९ उस स्वर्ग के प्राप्त होने से भी क्या लाम है जिससे फिर ज्युत होना पड़ता है। यदि प्राणियों का वष करने से मनुष्य स्वर्ग बलदेव उपाध्याय कृत 'वैदिक साहित्य और संस्कृति' नामक ग्रन्थ से जान लेना चाहिए। ४०२, पद्म ११।२१२ । ४०३. पद्म. ११।२१३॥ ४०४. पद्मः १११२१५ । ४०५. तथा च यत्पशुर्मायुमकृतोरोदनवाहमा (?) पादाम्याननसस्तनमाद्विश्व स्मान् मुन्चे स्वनल: ११।२१४ यस्पार्मायुमकृतोरोवा पभिराहते। अग्निर्मातस्मोदनसो विश्वस्मात् मुञ्चत्व' एनसः (कात्यायन श्रौतसून २५।२) १३३५ । ४०६. पदम० १११२०६ । ४०७. पद्म० ११।२०७१ ४०८. वही, १११२२९ । ४०९. वही, १११२३५ । ४१०. वहीं, ११॥२३६ ।

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