Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 306
________________ २९४ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति मरुत्व, हरिवाहन, सुमित्र और प्रमव, राजा मछु, नलकूबर, कुलकान्ता, अनन्तबल मुनिराज, उपयना कन्या, सहनभट पुरुष, राजा महेन्द्र, अंजना-पवनंजय, हनूमान्, वरुण, चौबीस तीर्थङ्कर, दारह चक्रवर्ती, शान्ति, कुन्थु, अर चक्रवर्ती, सनत्कुमार चक्रवती, सुभम चक्रवर्ती, महापद्म चक्रवर्ती, जयसेन चक्रवर्ती, ब्रह्मदत्त मक्रवती, नौ बलभद्र, नो नारायण, नौ प्रतिनारायण, आठवें बलभद्र राम, मुनिसुबत भगवान्, वनबाड, कीर्तिधर मुनि, सुकौशल मुनि, हिरण्यगर्भ. मांसभक्षो सुदास, दशरथ, जनक, केकया, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, एर ब्राह्मण, पिङ्गल ब्राह्मण, कुण्डलमण्डित, भामण्डल, मीता, म्लेच्छों का आगमन, चन्द्रगति विद्यावर, सुप्रभा रानी. अतिभूति, उरि हाय, वन, मिहोदर मालिग, दाणा कपिल श्रामण, वनमाला, अतिवीर्य, जितपद्या, देशभूषण-कुलभूषण मुनि, उदित और मुदित, अग्निप्रभदेव, जटायु, शम्बूक, चन्द्रमस्खा, रत्नजटी विद्याधर, मनदस विनयक्त, शुद्र, आत्मशेय, पन्द्रलेखा, विद्युत्प्रभा और तरङ्गमाला, लंकासुन्दरी, गिरि और गोभूति , कुबिन्दा और उसके पुत्र अहिदेव महोदेव, हस्त प्रहस्त, नल नील, अंगद, घनप्रतिभ, विशल्या, इन्द्रजित और मेघवाहन के पूर्व भव, मन्दोदरी के पूर्वभव, अभिमाना, श्रीवर्षित तया उसके परिवार के पूर्वभव, त्रिलोकमण्डन हाथी, सूर्योदय और चन्द्रोदय, कृतान्तवक्त्र सेनापति, अमल, अहद्दत्त सेठ, मनोरमा, सीता के जनापवाद, धनजंघ, अनङ्गलवण और मदनाकुश, कनकमाला के विवाह, राम लक्ष्मण तथा सीता भोर रावण के पूर्वभव, प्रियङ्कर और हितङ्कर, विद्युत्रा और सर्वभूषण, सोता जी की अग्नि परीक्षा, मधु कैटभ, मधु चन्द्राभा, लक्ष्मण के पुत्र, वनमाली, सीतेन्द्र द्वारा रावण और लक्ष्मण के जीव को संबोधन, रावण और लक्ष्मण के आगामी भव तथा सीता के आगामी भन को कथामें कही गई है। ये सभी कथायें संस्कृत जन कथा साहित्य की बहुमूल्य निधि हैं। इनसे प्रेरणा प्राप्त कर मनुष्य ऐहिक और पारलौकिक अभ्युदयों की सिद्धि कर सकता है। पचरित और हरिवंश पुराणा आचार्य जिनसेन ने शक सं० ७०५ ( विक्रम सं० ८४० ) में हरिवंश पुराण की रचना की थी। इस रचना में उम्होंने अन्य आचार्यों के साथ रविण को भी प्रशंसा की है। उनकी कविता के विषय में वे लिखते है--रविणाचार्य की काव्यमयी मूर्ति सूर्य की मूर्ति के समान लोक में अत्यन्त प्रिय है क्योंकि जिस प्रकार सूर्य की मूर्ति 'कृतपनोदयोद्योता है अर्थात् कमलों का विकास और उग्रोस (प्रकाश) करने वाली है उसी प्रकार रविषण की काव्यमयी मूर्ति भी 'कृतपयो ४६. हरिवंश पुराण, ६६५२ ।

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