Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 313
________________ पद्मवरित का सांस्कृतिक महत्त्व : ३०१ अनार के बगीचों के विषय में पद्मवरित में कहा गया है - जिनके फूल तोताओं की चोचों के अग्रभाग तथा वानरों के मुखों का संशय उत्पन्न करने बाले है ऐसे अनार के बागों से यह देश युक्त है । पउमचरिउ में इसी को इस रूप में व्यक्त किया गया है - ( जिस देश में ) खुले हुए अनारों के मुख कपि के मुख की तरह जान पड़ते हैं । ७३ केतकी की धूलि से युक्त प्रदेशों का वर्णन करते हुए रविषेण 'जिस देश के ऊँचे ऊँचे प्रदेश केतकी की धूलि से सफेद-सफेद हो ऐसे जान पड़ते हैं मानों मनुष्यों से सेवित गंगा के पुलिन ही हो। विषय में स्वयम्भु कहते हैं-जहां सुन्दर भौरों की पंक्तियाँ केतकी के से घूसरित हो रही थी बर समूह सन्तुष्ट होते हैं। को रमपो जल पिलाते हैं । पद्मचरित में फलों के द्वारा श्रेष्ठ वृक्षों के समान गृहस्थों में पथिकों के पचमचरिउ में हिलते-जुलते दालों के इससे पथिक सन्तुष्ट होते हैं । लतागृह पथिकों ७७ के पद्मचरित में मगध देश मनोहर राजगृह नगर के विषय में ही हो । सब ओर से सुन्दर तथा फूलों को सुगन्धि से कहा गया है कि मानों वह संसार का यौवन पउमचरिउ में एक कदम और आगे चलकर कवि कहता है- 'उस मगध देश में धन-धान्य और स्वर्ण से समृद्ध राजगृह नाम का नगर था, जो ७८ ७२. कोटिभिः शुकञ्चूनां तथा शाखामृगाननः । संदिग्धकुसुमैर्युक्तः ७३. जहि फाहिम गई दाडिमई । णज्जन्ति ताई पंकई मुहाई || - पउमचरिउ १०४ ६ । पृथुभिर्वामिनः ॥ पद्म० २।१६ | ७४. केतकोधूलिधवला यस्य देशाः समुन्नताः । गङ्गातिसङ्काशा विभान्ति जनसेविताः ॥ पद्म० २।१४ । ७५, जहिं महयर पन्ति केयढ़ केसर रम ७६. तर्पिताव संघातः कहते हैं रहे हैं और इसी के कणों सुन्दराउ | धूसरा ॥ -- पउमचरिउ ११४३७ । फलैर्भरतरूपमः । महाकुटुम्बिभिनित्यं प्राप्तोऽभिगमनोयताम् ॥ - पद्म० २०३० । ७७. जहि दक्खा मण्डव परियन्ति | पुणु पन्थिय रस सलिलई पियन्ति । पउम० ११४१८ ७८. तत्रास्ति सर्वतः कान्तं नाम्ना राजगृहं पृरम् । कुसुमामोदसुभगं भुवनमेव यौवनम् ।। प० २१३३ ।

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