Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 312
________________ ३०० : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति है जो दोनों के तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट है। साथ ही रविषेण की अनेक काव्यात्मक कल्पनाओं आदि में अपनी कल्पना का पुट देकर इसे विशिष्टता प्रदान की है। रविषण के दाय को स्वयम्भू ने कितने अधिक का में ग्रहण किया, यह तो दोनों के ग्रन्थों (पमचरित और पउमचरित) के स्वतन्त्र रूप से तुलनास्मक अध्ययन का विषय है। यहाँ उदाहरण के लिए पद्मचरित और पामचरित के प्राग के कुल संशों की तलना ही पर्याप्त होगी पधचरित के प्रथम पर्व के आदि में मंगलाचरण स्वरूप तीर्थङ्करों की स्तुति की गई है । पउमचरिउ में भी तीर्थकरों की स्तुति की गई है । ___ तीर्थकरों की स्तुति के बाद पमचरित में पत्कया की प्रशंसाकर रविषेण ने अपनी आचार्य परम्परा दी है । पउमचरित में मंगलाचरण के बाद सीधे आचार्य परम्परा का उल्लेख किया गया है । पधचरित का दूसरा पर्घ मगध देश के वर्णन से प्रारम्भ किया गया है। पचमचरित की प्रथम सन्धि में ही पद्मचरित की भाँति संक्षिप्त कथावस्तु का निर्देशन करके मगध देश का वर्णन किया गया है । मगध देश का वर्णन करते हुए रविषण कहते हैं-'जहाँ कि भूमि अत्यन्त उपजाऊ है, जो धान के श्रेष्ठ खेतों से अलंकृत है और जिसके भूभाग मंग और मोठ की फलियों से पीले-पीले हो रहे है। स्वयम्भू मगध देश के पके हुए धान्य का सीधे रूप में वर्णन न करके इस रूप में कहते हैं कि जहां पके हुए धान्य पर जंठी लक्ष्मी (शोभा) तारुण्य न पाने वाली खिन्न वृद्धा के समान दिखाई देती है। ___ मगध देश के पौड़ों और ईखों के वनों का वर्णन करते हुए पद्मचरित में कहा गया है-'जो दूध के सिंचन से ही मानों उत्पन्न हुए थे और मन्द-मन्द वायु से जिनके पसे हिल रहे थे, ऐसे पोड़ों और ईखों के वनों के समूह से जिस देश का निकटवर्ती भूभाग सश व्याप्त रहता है । पउमचरित में इसी को सीधे रूप में इस ढंग से व्यक्त किया गया है जहाँ पवन से हिलते डुलते ईस के खेत पौड़न के भय से कांपते हुए से आम पड़ते थे । ६८. उबंगयां वरीयोभिः यः शालेयरलङ्कृतः । मुद्गक्रोशीपुटेयस्मिन्नुद्देशाः कपिलस्विषः ।।-पद्म० २१७ । ६९. जेहिं पक्क कलमे कमलणिणिसण्णा ।। अलहन्त तरणि घेर वविसण्णा ||-पस. ११४॥२॥ ७०. क्षीरसेकादिवोद्भूतमन्दानिलचलहलैः । पुण्डे वाटसन्तानव्याप्तितानन्तरमूलतः ।।पद्म० २।४ । ७१. जहि उच्छू वणई पचणाहयाई । कम्यन्ति व पोलण-भय मयाई ।।-पउम० १।४।४।

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