Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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पद्मचरित का सांस्कृतिक महत्व : २९५
दयोद्योता' अर्थात् श्री राम के अभ्युदय का प्रकाश करने वाली है और सूर्य की मूर्ति जिस प्रकार प्रतिदिन परिवर्तित होती रहती है उसी प्रकार रविषेणाचार्य की मी मूर्ति भी प्रतिदिन परिवर्तित (अभ्यस्त ) होती रहती है । ४७ इससे स्पष्ट है कि जिनसेन नवश्य ही रविषेण की काव्यात्मकता से प्रभावित थे । इसके अतिरिक्त जिनसेन के पुराण की वर्णन शैली रविपेण के पद्मचरित को वर्णनशैली से अत्यधिक प्रभावित है । उदाहरणतः -
पद्मचरित के प्रथम पर्व में मङ्गलाचरण (तीर्थङ्करादि की स्तुति) सज्जन प्रशंसा, दुर्जन निन्दा, पूर्वाचार्यों की परम्परा, ग्रन्थ का अवतरण ग्रन्थ के वर्ण नीय अधिकार तथा निरूप्यमाण विषयों का सूत्र रूप में संकलन है । हरिवंश पुराण के प्रथम सर्ग में मङ्गलाचरण (तीर्थंकरादि की स्तुति), पूर्वाचायों का स्मरण सज्जन प्रशंसा, दुर्जन निन्दा, प्रम्यक प्रतिज्ञा ग्रन्थ के वर्णनीय अधिकारों तथा निरूप्यमाण विषयों का सूत्र रूप में संकलन है ।
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पद्मचरित में भगवान् महावीर का राजगृह के समीप विपुलाचल पर्वत पर आगमन होता है। राजा थेणिक भगवान् के दर्शन के लिए जाता है। वहीं जाकर दूसरे दिन गौतम स्वामी ( भगवान् महावीर के प्रमुख गणधर ) से रामकथा श्रवण की इच्छा प्रकट करता है। गौतम स्वामी इसके उत्तर में रामकथा कहते है । हरिवंश पुराण भगवान् महावीर विहार करते हुए विपुलाचल पर आते हैं । राजा श्रेणिक चतुरंग सेना के साथ भगवान् के समवसरण में पहुँचता है | वहीं वह गौतम गणधर से तीर्थंकरों, चक्रषसियों, बलभद्रों, नारायणों तथा प्रति नारायणों के चरित, वंशों की उत्पत्ति तथा लोकालोक के विभाग के निरूपण के लिए प्रार्थना करता हूँ।*
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अन्तर केवल यही है कि पद्मचरित में भगवान् महावीर और उनके जीवन माहात्म्य आदि का संक्षिप्त वर्णन ही दिया गया है, जबकि हरिवंश पुराण में भगवान् महावीर के जन्म से लेकर विपुलाचल पर्वत तक पहुँचने की घटनाओं का वर्णन विस्तार से किया गया है । ५०
पद्मचरित में लोक- रचना का अत्मन्त संक्षिप्त रूप से विशेषकर तीसरे पर्व में वर्णन किया गया है । हरिवंश पुराण में लोक रचना का विस्तृत रूप से चतुर्थ से सप्तम सर्ग तक वर्णन किया गया है।
४७. कृपया प्रत्यहं परिवर्तिता । मूर्तिः काव्यमयी लोके रवेरिव एवं प्रिया - हरिवंशपुराण १।३४ ।
४८, पद्मपर्व २, ३,
४९. हरिवंश पुराण सर्ग २, ३ ५०. १० पर्व २, ३, हरिवंश पुराण सर्ग २, ३ .