Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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धर्म और पर्शन : २८३
वेब माने गये है-अग्नि मादि हविर्भोजी तथा मनुष्यदेव (ब्राह्मण)। दोनों के लिए यश का दो विभाग किया गया है। आहुति देवों के लिए और दक्षिणा मनुष्य-देवों के लिए होती है । ४२० हविर्भोजी देवों द्वारा मांस भक्षण न किए जाने को पुष्टि करने के बाद मनुष्य देवों के विषय में पारिस में कहा गया है कि लोक में जो मनुष्य देव के रूप में प्रसिद्ध है वे साधारणजन के समान ही भोजन के पात्र है, अर्थात् भोजन करते हैं, कषाय से युक्त है और अवसर पर
आशिक कामादि का सेवन करते है। ऐसे देव दान के पात्र कैसे हो सकते हैं। कितनी ही बातों में वे अपने ही भक्त जनों से गये गुजरे अथवा उनके समान है तब उन्हें उत्तम फल कैसे दे सकते हैं।७२१ यद्यपि वर्तमान में उनके शुभ कर्मों का उदय देखा जाता है तो भी उनसे अन्य दुःखी मनुष्यों को मोक्ष की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? ऐसे कुदेवों से मोक्ष की इच्छा करना बालू से तेल प्राप्त करने की इच्छा के समान है । अथवा अग्नि की सेवा से प्यास नष्ट करने की इच्छा के समान है। यदि एक लँगड़ा दूसरे मनुष्य को देशाम्तर में ले जा सकता है तो इन देवों से दूसरे दुःखी जीवों को भी फल की प्राप्ति हो सकती है । १२२
विविध धार्मिक मान्यतायें उपयुक्त मान्यताको के आंतरिक्त अन्य पार्मिक मान्यताय भी उस समय पीं, जिमका उल्लेख उनका निषेध करने की दृष्टि से ही पद्यपि पधचरित में हुआ है फिर भी उनसे तत्कालीन मान्यताओं पर बहुत कुछ प्रकाश पड़ता है। हन मान्यताओं से युक्त व्यक्तियों या वर्गों को हम निम्नलिखित भागों में बाट सकते है
१. तापस २१(१)ये आश्रम में रहते थे। जटायें धारण करते थे। सरीर पर बल्कल धारण करते थे। स्वादिष्ट फलों को खाते थे। इनके अपने मठ भी थे। इन मठों में तोता, मैना, हरिण, गाय आदि पालते थे। इनके यहाँ जटाधारी पालक पढ़ने के लिए आया करते थे। कुछ तापस सूखे पसे खाकर तथा वायु का पान कर जीवन व्यतीत करते थे। यह अतिथि सत्कार में निपुण थे। अपने आप उत्पन्न होने वाले पान्य इनका माहार था।१२२(१) बत्कलों को धारण करने के कारण इन्हें बल्कलतापसा भी कहा गया है। इनकी उत्पत्ति बतलाते हुए कहा गया है कि स्त्री को देखकर उनका चित्त दूषित हो जाता था और जननेन्द्रिय में विकार दिखने लगता था इसलिए उन्होंने ४२०. वैविक साहित्य और संस्कृति (तृ० सं०), पृ० २०८ । ४२१. पन १४८५-८४ । ४२२, पन० १४१८५-८६ । ४२३ (१). वही, ४१६११९। ४२३(२). वही, ३३।११२ ।