Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 294
________________ २८२ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति में जाते हैं तो फिर प्राणिवध की अनुमति मात्र से वसु नरक क्यों गया २४११ वसु नरक गया, इसमें प्रमाण यह है कि ब्राह्मण अपने पक्ष के समर्थन में आज मी हे बसो ! उठो स्वर्ग जाओ इस प्रकार जोर-जोर से चिल्लाते हुए अग्नि में आहूति डालते हैं । यदि वसु नरक नहीं गया होता तो उक्त मन्त्र द्वारा आहुति देने की क्या आवश्यकता को २४१२ चूर्ण वाले लोग भी नरक गए हैं। फिर अशुभ करने वाले लोगों की तो कथा ही क्या है। द्वारा पशु बनाकर उसका धात करने संकरूप से साक्षात् अन्य पशु के व ४१३ यज्ञ से देवों को तृप्ति होती है, यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि देव को तो मनचाहा दिव्य अन्न उपलब्ध होता है। जिन्हें स्पर्श, रस, गन्ध और रूप की अपेक्षा मनोहर आहार प्राप्त होता है उन्हें इस मांसादि घृणित वस्तु से क्या प्रयोजन हूँ ? जो रज और भीर्य से उत्पन्न है, अपवित्र है, कीड़ों का उत्पत्ति स्थान है तथा जिसकी गन्ध और रूप अत्यन्त कुत्सित है ऐसे मांस को देव लोग किस प्रकार खाते है ? ४१४, ४ ४१५ यदि भूखे देव होम किए गए पदार्थ से तृप्ति को प्राप्त होते हैं तो वे स्वयं ही क्यों नहीं तृति को प्राप्त हो जाते, मनुष्यों के होम को माध्यम क्यों बनाते है ४१६ जो देव ब्रह्मलोक से आकर योनि से उत्पन्न होने वाले दुर्गन्ध युक्त शरीर को खाता है उसको यहाँ कौए शृगाल और कुत्ते के समान कहा गया है । ४१७ श्राद्ध, तर्पण आदि के द्वारा मृत व्यक्ति की तृप्ति मानना भी ठीक नहीं । ब्राह्मण लोग लार से भींगे हुए अपने मुख में जो अन्न रखते हैं वह मल से भरे पेट में जाकर पहुँचता है। ऐसा अन्न स्वर्गवासियों को किस प्रकार तृप्त करता होगा । ४१८ जिस प्रकार व्याथ के द्वारा किया हुआ वष दुःख का कारण होने से पापबन्धका निमित होता है उसी प्रकार वेदी के मध्य में पशु का जो वध होता है वह भी दुःख का कारण होने से पापबन्ध का निमित्त है । ४१९ मनुष्य देवों की मान्यता का निषेध - शतपथ ब्राह्मण में दो प्रकार के ४११. पद्म० ११ / २३७ १ ४१३. वही, ११।२४० । ४१५. वही, ११३२४७ ४१७. वही, ११।२५० । ४१९. वही, ११।२१६ । ४१२. वही, ११।२३८-२३९ । ४१४. ० ११।२४५-२४६ । ४१६. वही, ११।२४९ । ४१८. वही, ११।२५१ ।

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