Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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२७४ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
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उनमें से सर्वथा प्रयुक्त वक्तृत्व तो बनता नहीं है क्योंकि प्रतिवादी के प्रति वह सिद्ध नहीं हैं । यदि स्याद्वाद सम्मत वक्तृत्व लेते हो तो तुम्हारा हेतु असिद्ध हो हो जाता है क्योंकि इससे निर्दोष घरता की सिद्धि हो जाती है। आपके (जैमिनि आदि के ) वेदार्थवता हम लोगों को भी हृष्ट नहीं हैं। वक्तृत्व हेतु से देवदत्त के समान वे भी सदोष वक्ता सिद्ध होते हैं, इसलिए आपका यह वक्तृत्व हेतु विरुद्ध अर्थ को सिद्ध करने वाला होने से विरुद्ध हो जाता' है। प्रजापति आदि के द्वारा दिया गया यह उपदेश प्रमाण नहीं हो सकता, क्योंकि वे देवदत्तादि के समान रागी द्वेषी ही है और ऐसे रागी द्वेषी पुरुषों से जो आगम कहा जायेगा वह भी सदोष हो होगा। अतः निर्दोष आगम का तुम्हारे यहाँ अभाव सिद्ध होता है । १४३ एक को जिसने जान लिया उसने सद्रूप से अखिल पदार्थ जान लिए । अतः सर्वश के अभाव की सिद्धि में तुमने दूसरे पुरुष का दृष्टान्त दिया है, उसे तुमने ही साध्यविकल कह दिया है, क्योंकि वह चूंकि एक को जानता है, इसलिए वह सबको जानता है, इसकी सिद्धि हो जाती है । १४७ दूसरे तुम्हारे मत से सर्वथा युक्त वचन बोलने वाला पुरुष दृष्टान्त रूप से है नहीं अतः आपको दृष्टान्त में साध्य के अभाव में साधन का अभाव दिखलाना चाहिए । अर्थात् जिस प्रकार आप अन्य दृष्टान्त में अम्बय पाप्ति करके घटित बतलाते हैं उसी प्रकार व्यतिरेक व्याप्ति भी घटित करके बतलानी चाहिए तब साध्य की सिद्धि हो सकती है, अन्यथा नहीं। आपके यहाँ सुनकर अदृष्ट वस्तु के विषय में वेद में प्रमाणता आती है, मतः वक्तृत्व हेतु के बल से सर्वश के विषय में दूषण उपस्थित करने में इसका आश्रय करना उचित नहीं है । १४९ अर्थात् वेदार्थ का प्रत्यक्ष ज्ञान न होने से उसके बल से सर्वज्ञ की सिद्धि नहीं की जा सकती । सर्वशता के साथ वक्तृत्व का विरोध क्या है ? सर्वशता का सुयोग मिलने पर यह पुरुष वक्ता अपने आप हो जाता १५० है । जो बेचारा स्वयं नहीं जानता वह बुद्धि का दरिद्र दूसरों के लिए क्या कह सकता है ? इस प्रकार व्यतिरेक और अविनाभाव का अभाव होने से वह साधक नहीं हो सकता ।'
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हमारा पक्ष सो यह है कि जिस प्रकार सुर्वणादि धातुओं का मल बिलकुल क्षीण हो जाता है उसी प्रकार यह अविद्या और रागादिक मल कारण पाकर किसी पुरुष में अत्यन्त क्षीण हो जाते हैं जिसमें क्षीण हो जाते हैं वही सर्वज्ञ कहलाने
११।१८२ ।
३४५. पद्म० ११११७९-१८० । ३४७. वही, ३४९. वही, ११।१८४ । ३५१. वही, ११।१८६
३४६. वही, ११११८१ ।
३४८. वही, ११।१८३ । २५०. वही, ११।१८५ ।