Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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धर्म और दर्शन : २७५ लगता है ।३५८ हमारे मिशान्त से पदायों के जो धर्म अर्थात् विशेषण है वे अपने से विरुद्ध धर्म को अपेक्षा अवश्य रखते है। जिस प्रकार कि उत्पल आदि के लिए जो नील विशेषण दिया जाता है उससे यह सिद्ध होता है कि कोई उत्पल ऐसा भी होता है कि जो नील नहीं है ।१५३ इसी प्रकार पुरुष के लिए जो आपके यही असर्वश विशेषण दिया है वह सिद्ध करता है कि कोई पुरुष ऐसा भी है जो असर्वश नहीं है अपति सर्वश है।
। सृष्टि कर्तृत्वनिषेष पारित के एकादश पर्व में कहा गया है कि ब्रह्मा (स्वयम्भ) के द्वारा लोक की सुष्टि हुई यह कथन विचार करने पर जीर्ण तण के समान नि:सार जान पड़ता है । २१४ सुष्टि कर्तृत्व के विरोध में यहां निम्नलिखित युक्तियां दी गई है___ यदि स्रष्टा कृतकृत्य है तो उसे सष्टि की रचना करने से क्या प्रयोजन है ? यदि कहो कि क्रीड़ावश वह सृष्टि की रचना करता है तो कृतकृत्य कहाँ रहा ? जिस प्रकार क्रीड़ा का अभिलाषी बालक अकृतकृत्य है उसी प्रकार कीड़ा का अभिलाषी स्रष्टा भी अकृतकृत्य कहलायेगा ।३५५ सष्टा बन्य पदार्थों के बिना स्वयं ही रति को क्यों नहीं प्राप्त हो जाता जिससे सष्टि निर्माण की कल्पना करनी पड़ी।
दूसरा प्रश्न यह है कि जब सष्टा सृष्टि की रचना करता है तो इसके सहायक करण अधिकरण आदि कोन से पदार्थ है।३५७ तीसरी युक्ति यह है कि संसार में सब लोग एक सदृश नहीं है, कोई सुखी देखे जाते हैं और कोई दुःखी देखे जाते हैं। इससे यह मानना पड़ेगा कि कोई तो स्रष्टा के उपकारी है उन्हें यह सुखी करता है और कोई अपकारी है, उन्हें यह दुःखी करता है। यदि कहो कि ईश्वर कृतकृत्य नहीं है तो वह कर्मों से परतन्त्र होने के कारण ईश्वर नहीं कहलाएमा । जिस प्रकार कि आप फर्मों के परतन्त्र होने के कारण ईश्वर नहीं है । ३५१
३५२. पप० १११८७ । दोषावरणयोहानिः निशेषास्त्पतिशायनात् ।
क्वचिद्यथा स्वहेतुम्यो बहिरन्तर्मलमयः ।।
-आचार्य समन्तभद्र : आप्तमीमांसा ३५३. वही, ११॥१८८ ।
३५४, वाही, १९१२१७ ३५५. वही, १११२१८
३५६. वही, १९२१९ । ३५७. वही, ११।२१९ ।
३५८. वही, १२।२२० । ३५९. वही, १९१२२१ ।