Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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२७६ : पप्रचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
जिस प्रकार रप, मकान आदि पदार्थ विशिष्ट आकार से सहित होने के कारण किसी बुद्धिमान् मनुष्य के प्रयन से रचित होना चाहिए। जिसकी धुद्धि से इन सबकी रचना होती है वही ईश्वर है । इस अनुमान से सृष्टिकर्ता ईश्वर की सिद्धि होती है, यह कहना ठीक नहीं क्योंकि एकान्सवादी का उक्त अनुमान समीचीनता को प्राप्त महीं है। विचार करने पर जाम पड़ता है कि रण बादि जिप्तने पदार्थ है वे एकान्त से बुद्धिमान् मनुष्य के प्रयत्न से ही उत्पम्म होते है, ऐसी बात नहीं है क्योंकि रष मादि वस्तुयों में जो लकड़ी आदि पदार्थ भवस्थिर नही स्थारि भाजपना होता है। जिस प्रकार रथ आदि के बनाने में बहई को क्लेश उठाना पड़ता है उसी प्रकार ईश्वर को भी क्लेश उठाना पड़ता होगा। इस प्रकार उसके सुखी होने में बाघा प्रतीत होती है । यथार्थ में तुम जिसे ईश्वर कहते हो वह नामकर्म है । १२ ।
ईश्वर सशरीर है या अशरीर ? यदि अशरीर है वो उससे मूर्त पदार्थों का निर्माण सम्भव नहीं है। यदि सशरीर है तो उसका वह विशिष्टाकार बाला शरीर किसके द्वारा रचा गया है ? यदि स्वयं रचा गया है तो फिर दूसरे पदार्थ स्वर्य क्यों नहीं रचे जाते ? यदि यह माना जाय कि वह दूसरे ईश्वर के यत्न से रचा गया है तो फिर यह प्रश्न उपस्थित होगा कि उस दूसरे ईश्वर का शरीर किसने रचा? इस तरह अनघस्था दोष उत्पन्न होगा। इस विसंवाद से बचने के लिए यदि माना जाय कि ईश्वर के शरीर है ही नहीं तो फिर अमूर्तिक होने से वह सुष्टि का रचयिता कैसे होगा? जिस प्रकार अमूर्त होने से आकामा सृष्टि का कर्ता नहीं है उसी प्रकार अमूर्त होने से ईश्वर भी सृष्टि का कर्ता नहीं हो सकता। यदि बढ़ई के समान ईश्वर को कर्ता माना जाय तो यह सशरीर होगा न कि अशरीर 1३१३
यज्ञ का प्रचलन-रावण की दिग्विजय का वर्णन करते हुए पद्मचरित में कहा गया है कि जब रावण ने उत्तर दिशा की बोर प्रस्थान किया तब उसने सुना कि राजपुर का राजा बड़ा बलवान् है। वह अहंकारी, दुष्टचित्त, लौकिक मिथ्या मार्ग से मोहित और प्राणियों का विध्वंस कराने वाले यश दीक्षा नामक महापाप को प्राप्त है । इससे स्पष्ट है कि रावण के समय हिंसामय यश होते ३६०. पद्मा १११२२२-२२३ । ३६१. वही, ११।२२४ । ३६२. वहीं, ११५२२५ ।
३१३. वही, १९६२२६-२२८ ! ३६४. वही, ११३८,९ । रावण ने उत्तर की ओर जाते हए जो राजपुर के प्रयल
नरेश के क्रूर हिंसात्मक या की बात सुनी उसका अभिप्राय यौधेय (पंजाब) की राजधानी राजपुर के उसी मारिदास नामक राजा से होना चाहिए