Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 282
________________ २७० : पपवरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति वेदनीय-जो अनुभव किया जाय वह वेदनीय है अर्थात् जिसके द्वारा सुस्न दुःख का अनुभव हो वह वेदनीय है। मोहनीय-गो मोहन करे या जिसके द्वारा मोह हो वह मोहनीय है । आयु-जिससे नरकादि पर्यायों (अवस्थाओं) को प्राप्त हो वह आय है। नाम-जो आत्मा का नरकादि रूप से मामकरण करे मा जिमके द्वारा मामकरण हो वह नाम है। गोत्र---रच और नीच रूप शब्द व्यवहार जिससे हो वह गोत्र है ।। अन्तराय—जिसके द्वारा दाता और पात्र आदि के बीच में विघ्न आवे वह अन्तराय है अथवा जिसके रहने पर दाता आदि दानादि क्रियायें न कर सकें, दानादि को इतना से पराङ्मुल हो जायें वह अन्तराम है। घाति तथा अघाति कर्म---जैन आगम में घाति तथा अघाति कमों का वर्णन आता है। पद्मपरित में भी इनका निर्देश दिया गया है । १२४ ज्ञानाधरण, दर्शनावरण भारतीय और असराय ये कार व अ . सद्भाव रूप गुणों के घातक) हैं और दोष धार कम अघातिया (प्रतिजीवीअभावरूप गुणों के घातक) है । घातिकर्म का नाश कर केवलज्ञान और अघाति कर्म का नाश कर मोक्ष होता है । १२५ प्रमाण और नय प्रमाण- पदार्थ के ममस्त विरोधी घर्मों का एक साथ वर्णन करना प्रमाण है । नय-पदार्थ के किसी एक धर्म का सिद्ध करना नय है । १२" इसी अभिप्राय का खुलासा करते हुए कहा है कि प्रमाण से जाने हुए पदार्थ के एकदेश को ग्रहण करने वाले ज्ञाता के अभिप्राय विशेष को नय कहते हैं । इस अभिप्राय के द्वारा ज्ञाता जानी हुई वस्तु के एकदेश को स्पर्श करता है । वस्तु अनन्त धर्म बाली है 1 प्रमाणशान उसे समग्रभाव से ग्रहण करता है, उसमें अंधविभाजन करने की और उसका लक्ष्य नहीं होता । जैसे मह घड़ा है इस ज्ञान में प्रमाण घड़े को अखण्डभाव में उसको रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि अनन्त गुण धर्मों का ३२४. पद्म २१४५, १२२१७१ । ३२५. पद्म० १२२१६९-११, २१।४५ । ३२६, 'प्रमाणं' सकलाबेशों, पद्म १०५।१४३ । ३२७. नयोऽवयवसाधनम्', पद्म० १०५.१४३ 1 ३२८. 'प्रमाण गृहीसाथैक देशग्राहो प्रमातुरभिप्रायविशेषो नयः ।' 'नयो ज्ञातुरभिप्रायः' (लघीयस्त्रमाविस ग्रह का० ५२) LAM

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