Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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२६८ : पद्मवरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
1
से
च्युत होकर विष्ठा
अस्यन्त दुःसह गर्भ
जाल से बाच्छादित
स्थित रहते हैं और नालद्वार से व्युत आस्वादन करते हैं ।
उनके
के भार से इतने भारी हो जाते हैं कि वे पानी में लोहपिण्ड के समान सीधे नरक में परिभ्रमण करते है । १०१ जो वचन से तो मानो मधु भराते हैं पर हृदय में विष के समान दारुण हैं। जो इन्द्रियों के वश में स्थित हैं और बाहर से जिनका मन कालिक सन्ध्याओं में निमग्न रहता है ०२ जी योग्य आचार से रहित हैं और इच्छानुसार मनचाही प्रवृत्ति करते हैं. ऐसे दुष्ट जोव तिर्यंच योनि में भटकते ०३ हैं। कितने ही लोग धर्म करके उसके प्रभाव से स्वर्ग में वेदियों आदि के परिवार से मानसिक सुख प्राप्त करते हैं । ३०४ वहाँ तथा सूत्र से लिप्त बिलबिलाते कोडों से युक्त दुर्गन्धित एवं गुरु को प्राप्त होते हैं।०५ गर्भ में यह प्राणी चमड़े के रहते हैं, पित्त, लेष्मा आदि के बीच में माता द्वारा उपभुक्त आहार के द्रव का समस्त अंग संकुचित रहते हैं और दुःख भार से पीड़ित रहते हैं, वहाँ रहने के बाद मनुष्य पर्याय प्राप्त करते हैं। १०७ यदि कोई प्राणो मृदुता और सरलता से सहित होते हैं तथा स्वभाव से ही सन्तोष प्राप्त करते हैं तो ये मनुष्य होते मनुष्य में भी मोटी जीव परम सुख के कारणभूत कल्याणमार्ग को छोड़कर क्षणिक सुख के लिए पाप करते हैं । १०९ कोई अपने पूर्व उपार्जित कर्म के अनुसार कार्य होते हैं, कोई म्लेच्छ होते हैं, कोई धनाढ्य होते हैं और कोई अत्यन्त दरि होते हैं । ११० इस प्रकार मनुष्यगति में होने वाले दुःखों का पद्मचरित में विस्तार से वर्णन किया गया है । १११ कुछ ही मनुष्य ऐसे होते हैं जो षोडवा कारण भावनाओं का चिन्तयन कर तीनों लोकों में मोक्ष उत्पन्न करने वाले तीर्थङ्कर पद प्राप्त करते हैं और कितने ही लोग निरन्तराय होकर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र की आराधना में तत्पर रहते हुए
के
हैं।
वो तीन भषों में ही अष्ट कर्म रूपी कलंक से मुक्त जीवों के उत्कृष्ट एवं निरुपम स्थान को उत्तम सुख का उपभोग करते हैं ।'
मुक्त हो जाते हैं। ११२ फिर पाकर अनन्तकाल तक निर्वाध
३११
३०१. पद्म० ५।३३० ।
३०३. वही ५।३३२ ३०५. वही, ५।३३६ ।
३०७, बही, ५१३३८ ।
३०९. वही, १४ ४० । ३११. वही, २११६९-१९१ । ३१३. वही, २।१९४ |
३०२ वही ५।३३१
३०४. वही ५०३३५ ॥
३०६. वही ५।३३७ ॥
३०८. वही, १४/३९ ।
३१०. यही १४१४१ | ३१२. व्हो, २५१९२, १९३ ।