Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
View full book text
________________
धर्म और वर्शन : २७१
विभाजन करके पूर्ण रूप में जानता है, जबकि कोई भी नय उसका विभाजन करके रूपवान घट: रसवान् घटः आदि रूप में उसे अपने अपने अभिप्राय के अनुसार जानता है । प्रमाण और नय ज्ञान की ही बत्तियां है, दोनों ज्ञानारमक पर्यायें हैं । जब ज्ञाता की सकल के ग्रहण की दृष्टि होती है तब उसका ज्ञान प्रमाण होता है और जब उसी प्रमाण से गृहीत वस्तु को खंडशः ग्रहण करने का अभिप्राय होता है सब वह अंशग्राही अभिप्राय नम कहलाता है । प्रमाण ज्ञान नय के लिए भूमि तयार करता है । ३२९
अनेकांत जिनेन्द्र भगवान् की स्तुति में पदमचरित के नवें सर्ग में कहा गया है कि आत्मा रागादि विकारों से शून्य है ऐसा उपदेश आपने सबके लिए दिया है। आत्मा है, परलोक है इत्यादि आस्तिष्पवाद का भी उपदेश आपने दिया है, संसार के समस्त पदार्थ क्षणिक है इस पक्ष का निरूपण जहाँ आपने किया है वहाँ (न्यायिक नय से) समस्त पदार्थों को नित्य भी आपने दिखाया है । हमारी आत्मा समस्त पर पदार्थों से पृथक् अम्खण्ड एक द्रव्य है ऐसा कथन आपने किया है, आप सबके समक्ष अनेकान्त धर्म का प्रतिपादन करने वाले हैं । ३२१ यहाँ अनेकान्त चाय विशेष महत्त्व का है। जैन दर्शन में वस्तु का स्वरूप अनेकान्तात्मक (अनेक धर्मात्मक) निर्णोत किया गया है। इसलिए जनदर्शन का मुख्य सिद्धान्त अनेकान्तवाद है। अनेकान्स का अर्थ है परस्पर विरोधी दो तत्त्वों का एकत्र समन्वय । तात्पर्य यह कि जहां दूसरे दर्शनों में वस्तु को कंचल सत् या असत्, सामान्य या विशेष, नित्य या अनित्थ, एक या अनेक और भिन्न या अभिन्न स्वीकार किया गया है वहीं जैनदर्शन में वस्तु को सत और असत्, सामान्य और विशेष, नित्य और मनित्य, एक और अनेक तथा भिन्न और अभिन्न स्थीकार किया गया है और जनदर्शन की यह मान्यता परस्पर विरोधी दो तत्वों के एकत्र समन्वय को सूचित करती है । ३३२
सप्तभङ्गी सप्तभङ्गी पदार्थ के निरूपण करने का एक मार्ग है। रविण ने इसे प्रशस्त माग कहा है ।३१३ ऊपर नय का विवेचन किया गया है। ये नय द्रव्यायिक और पर्यायाधिक दो प्रकार के होते हैं। उनमें द्रव्याथिक नय प्रमाण के विषयभूत द्रव्यपर्यायात्मक तथा एकानकात्मक अर्थ का विभाग करके पर्यायाथिक नय ३२९. पं० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य, जैनदर्शन, पृ० ४४१ ।। ३३७. पद्मा ९।१८३ ।
३३१. पन० ९.१८४ । ३३२. न्यायदीपिका, पृ. ३ (प्राक्कथन)। ३३३. पद्म १०५:१४३ ।