Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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२६२ : पप्रचस्ति और उसमें प्रतिपादित संस्कृति सामान्य अंश का जो निर्विकल्प रूप से ग्रहण होता है, उसे दर्शन५४६ कहते है।
चारित्रचारित्र का विवेचन इसी अध्याय में मुनि धर्म के प्रकरण में किया जा चुका है।
गुणस्थान-गुणों के स्थानों को अर्थात् विकाम की क्रमिक अवस्थाओं को गुणस्थान कहते हैं । जैनशास्त्र में गुणस्थान इस पारिभाषिक शब्द का अर्थ आत्मिक वाक्तियों के आविर्भाव की उसके शुद्ध कार्यकप में परिणत होते रहने की सरप्तम भावापन्न अवस्थाओं से है ।१४४ मिथ्यात्व, सासादन. मिश्र, अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्त विरत, अपूर्व करण, अनिवृत्तिकरण मूक्ष्म साम्पराय, उपशान्तमोह, श्रीणमोह, मयोग केव लिजिन तथा अयोगकेवलो इस प्रकार १४ गुणस्थान है ।२४६
निसर्मज एवं अधिगमज सम्यग्दर्शन-सम्यग्दर्शन के प्रकरण में इसो अध्याय में इनका विश्लेषण किया गया है।
नामादि न्यास-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव ये चार न्यास (मिक्षेप) कहे गये हैं ।२४९ इनके द्वारा बीवतत्त्व के अनेक भेद होते हैं । २५० प्रमाण और नय के अनुसार प्रचलित हुए लोकव्यवहार को निक्षेप कहते हैं ।२५१
नाम निक्षेप-गण, जाति, दैव्य और क्रिया की अपेक्षा के विना ही इच्छानुसार नाम रखने को नाम निक्षेप कहते है। जैसे किसी का नाम जिनदत्त है । अधपि यह जिनदेव के द्वारा नहीं दिया गया है तथापि लोकाब्य कहार चलाने के लिए उनका नाम जिनदत्त रख लिया गया है ।२५२
स्थापना निक्षेपन्यातु, काष्ठ, पाषाण आदि की प्रतिमा में यह वह है इस प्रकार की कल्पना करना स्थापना निशेप है । अम पावमाष की प्रतिमा में पापर्वनाथ की कल्पना करना या सतरंज की गोटों में बादशाह आदि की कल्पना करना २५३
द्रव्य निक्षेप-मूत, भविष्यत् पर्याय की मुख्यता लेकर बड़गान में कहना
२४६. गोम्मटसार जीवकांड माथा,.४८१ । २४७, 40 सुखलाल जो दर्शन मौर चिन्तन, प० २६३ । २४८. गोम्मटसार जीवकांड गाथा, ९।१० । २४९. 'नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यासः', सत्त्वार्थसूत्र १।५ । २५०. पय०२।१६० । २५१. मोक्षशास्त्र, पु० ५ (टीकाकार ६० पन्नालाल जी माहित्याचार्य) । २५२. वही, पृ० ५। . .
२५३, बहो, पृ० ५।