Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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धर्म और दर्शन : २६१
और वनस्पति ये पाँच स्थावर कहलाते हैं, दोष त्रस कहलाते हैं। इन छहों को मिलाकर जीव के छह निकायें हूँ । २२७
योग- काय, वचन और मन की क्रिया योग है । २३८ पातञ्जल योगदर्शन में चित्तवृति के निरोध को योग कहा गया है। (योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ) जैन ग्रन्थों में भी इसका यह अर्थ कहीं-कहीं देखने को मिलता है। लेकिन यहाँ इसका अर्थ यही है जो ऊपर दिया गया है।
वेद - पुरुष, स्त्री और नपुंसक वेद कर्म के उदय से भाव पुरुष भावस्त्री, भाव नपुंसक होता है । और नामकर्म के उदय से द्रव्य पुरुष, दृश्य स्त्री और द्रव्य नपुंसक होता है। यह भाववेद और द्रव्यवेद प्राय: करके समान होता है, परन्तु कहीं-कहीं विषम भी होता है । २३९
लेश्या - जिसके द्वारा जोब अपने को पुण्य और पाप से लिप्त करे उसको लेश्या कहते हैं । २४० तत्त्वार्थवार्तिक में कबाय के उदय से अनुरक्त योगप्रवृत्ति को लेश्या कहा है । २०१ यह कृष्ण, नील, कापोट, पीत, पद्म, शुक्ल के भेद से ६ प्रकार की होती है ।
कषाय - जो आत्मा को कर्ष अर्थात् चारों गतियों में भटकाकर दुःख दे २४२ क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कषाय हैं । २४०
ज्ञान --- जिसके द्वारा जीव त्रिकाल विषयक (भूत, भविष्यत् और वर्तमान) समस्त द्रव्य और उनके गुण तथा पर्यायों (अवस्थाओं) को जाने उसे ज्ञान कहते हूँ । २४४ यह गति श्रुत, अवधि, मन:पर्यय, केवल के भेद से पोच प्रकार का
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। इनमें आदि के दो परोक्षज्ञान हैं शेष तीन प्रत्यक्ष २४५
दर्शन - सामान्य विशेषात्मक पदार्थ के विशेष अंश का ग्रहण न करके केवल
२३७. पद्म० १०५/१४९, १०५।१४१ ।
२३८. 'कायवाङ्मनः कर्म योगः तत्त्वार्थसूत्र ६१
२३९, मोक्षशास्त्र - पं० पन्नालाल साहित्याचार्य (१० १०६) ।
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२४०. गोम्मटसार जीबकांड गाथा, ४८८
२४१. स्वार्थवार्तिक २२६ व सूत्र, वातिक नं० ८ ।
गोम्मटसार जीवकांड गाया, ४८९ ।
२४२. पं० पन्नालाल जी मोक्षशास्त्र पृ० १६ .
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२४३, पद्म० १४। ११० ।
२४४. गोम्मटसार जीवकांड गाथा, २९८ ॥
२४५. मतिश्रुतावधिमनः पर्ययके वलानि ज्ञानम्,
तत्त्वार्थसूत्र
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वही, १०१०, आधे परोक्षम् प्रत्यक्षमन्पत्' ११११ ( तत्वार्थसूत्र ) ।
१२९ तरप्रमाणे,