Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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कला : १९९
मध्यम--जो स्वचा और मांस को सुख पहुँचाता है यह मध्यम कहलाता है । ५१२
उत्कृष्ट (प्रकृष्ट ) - जो त्वचा, मांस और हड्डी को सुख पहुँचाता है वह प्रकृष्ट कहलाता है । ५५६
मनःसुखसंवाह्न - त्वचा, मांस और हड्डी को सुख पहुँचाने के साथ जब कोमल संगीत होता है तब मनःसुखसंवाहन कहलाता है ।११४
इसके सिवा इसके संस्पृष्ट, गृहीत, मुक्तिल, चलित आहत भङ्गित,
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fia पोडित और भिनपीडित ये भेद भी हैं । ११
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कर्मसंश्रया संवाहनकला के लिखित ५१३ भेद हैं- १. शरीर के मांस नहीं है वहाँ अधिक दबाना, ६. अमार्गप्रयात, ७. अतिभुग्नक, ८. अदेशात
प्रतीपक ।
भेद — कर्मसंख्या संवाहनकला के निम्नरोमों का उद्वर्तन करना, २ . जिस स्थान में ३. केशाकर्षण, ४. अद्भुत, ५. सृष्टप्राप्त, ९. अत्यर्थ, १०. अवसुप्त
शय्योपचारिका - जो संवाहन क्रिया के अनेक कारण अर्थात् आसनों से की जाती है वह चित्त को सुख देने वाली शय्योपचारिका नाम की क्रिया है । ५५७ शोभास्पद संवाहन – जो संवाहन उपरिलिखित दोषों से रहित होता है । योग्य देश में प्रयुक्त हैं तथा अभिप्राय को जानकर किया जाता है ऐसा सुकुमार संवाहून अत्यन्त शोभास्पद होता है । ५१८
वेशकौशल कला
स्मान करना, शिर के बाल गूंथना तथा उन्हें सुगन्धित आदि करना यह शरीर के संस्कार वेश-कौपाल नाम की कला है । ११९
लेप्प-कला
पद्मचरित में लेप्यकला के पर्याप्त विकास होने के भी प्रमाण मिलते हैं । एक बार प्राणों का संकट उपस्थित होने पर जब राजा दशरथ वेष बदलकर राज्य से अन्यत्र चले गये तब मन्त्री ने उनके शरीर का एक पुतला बनवाया । वह पुतला मूल शरीर से इतना मिलता-जुलता था कि केवल एक चेतना की अपेक्षा ही भिन्न प्रतीत होता था । उसके भीतर लाख आदि का
रस भराकर
५१२. पद्म० २४१७६ । ५१४. वही, २४ । ७.६ । ५१६. वही, २४:७७, ७८ ।
५१८. वही, २४७९
५१३, पद्म० २४७६ ।
५१५. वही, २४ /७४-७५ 1 ५१७. वही, २४।८० ।
५१९. वही, २४८२ ।