Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 242
________________ २३० : पमचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति को गिग देता है, तथापि यह सिंह के द्वारा मारा जाता है । मन लक्ष्मी और प्रताप से सहित है, धैर्यवान है, बलवान् है, बुद्धिमान् है और उत्तम सहायकों से युक्त है इसलिए अवश्य ही शत्र. को नष्ट करने वाला होगा । रामी सुप्रजा ने पुत्र शिशुध्न) को देखकर उसका मस्तक सुंघा और उसके बाद कहा कि हे पुत्र ! तू तीक्ष्ण बाणों के द्वारा शत्र समूह को जीते । ३५९ वोरप्रसविनी माता ने पुत्र को अर्घासन पर बैठाकर पुनः कहा कि हे वीर ! तुझे मुद्ध में पीठ नहीं दिखाना चाहिने :१७० पुरु ' मे रो ममी ही 'टा देर में स्वर्ण के कमलों से जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करूँगी।७१ युद्ध वर्णन----पद्मचरित में अनेक युद्धों का वर्णन हुआ है । इन युद्ध-वर्णनों को पढ़कर पढ़ने वाले के मन में वीर रस का संचार हो उठता है। उदाहरण के लिये द्वादश पर्व के कुछ उद्धरण ही पर्याप्त होंगे युद्ध में घोड़ा घोड़े को मार रहा था, हाथी हाथी को मार रहा या, घुड़सवार घुड़सवार को, हाथी सवार हाथी के सवार को और रथ रथ को नष्ट कर रहा था । ३२ जो जिसके सामने आया उसी को चीरने में तत्पर रहने वाला पैदल सिपाहियों का झुण्ड पैदल सिपाहियों के साथ युद्ध करने के लिए उद्यत था । ७५ कोई एक योद्धा शिर कट जाने से यद्यपि कबन्ध दशा को प्राप्त हुआ श्रा तथापि उसने शत्र की दिशा में देग से उछलते हुए शिर के द्वारा ही रुधिर की वर्षा कर शत्रु को मार डाला था । जिसका चित्त गर्व से भर रहा था ऐसे किसी योद्धा का सिर यद्यपि कट गया था तो भी वह ओठों को सता रहा और हुंकार से मुखर होता हुआ चिरकाल बाद मीचे गिरा था ।५ कोई एक ३६८, पदम ८९।४६-४७ ।। ३६९, समीक्ष्य तनयं देवी स्नेहादानाय मस्तके । जगाद जय बरस स्वं शरैः शनगणं शितः ॥ पदम० ८९४२० । ३७०. वत्सम सने कृत्वा वीरसूरगवत् पुनः । वीर दर्शयितव्यं ते गृष्ठं संयति न विषाम् ।। पद्म ८९।२१ । ३७१. प्रत्यागतं कृतार्थ त्वां वीक्ष्य जातक संयुगात् । पूजां परी करिष्यामि जिनानां हेमपङ्कजैः ।। पदम० ८९५२२ । ३७२, पद्म० १२।१६४। ३७३. पदम० १।२६५ । ३७४, करिषत्कान्यता प्राप्तः शिरसा स्फुटरहसा । मुवस्तदिदशि कीलाल प्रतिपक्षमताश्यत् ॥ पदमा १२१२९२ । ३७५. कृत्तोऽपि कस्यचिम्मूर्धा गर्वनिर्भरचेतसः । दष्टदन्तच्छदोऽपप्तद्धुङ्गारमुखरपिचरम् ।। पद्म० १२।२९३ ।

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