Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 258
________________ २४६ : पपवरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति होता है,१२५ न्यायपूर्वक प्रवृत्ति करने वाले बस स्थावर जीवों की अहिंसा की जाती है,५२४ मन और वानों को आनन्दित करने वाले स्नेहपूर्ण, मधुर सार्थक और कल्याणकारी वचन कहे जाते हैं,१२५ अदत्त वस्तु के ग्रहण में मन, वचन, काय से निवृत्ति की जाती है तथा न्यायपूर्ण दी हुई वस्तु ग्रहण की जाती है,१२५ जहाँ देवों के भी पूज्य और महापुरुषों के भी कठिनता से घारण करने योग्य शुभ ब्रह्मचर्व धारण किया जाता है,१२५ जिसमें, मोक्षमार्ग में महाविघ्नकारी मूर्छा के त्यागपूर्वक परिग्रह का त्याग किया जाता है, १२५६ मुनियों के लिए परपीड़ा से रहित आदि गणे हि मिः . है। विनय, नियमशील धारण किया जाता है। उसे सम्यक चारित्र कहते हैं । १३० सम्यग्दर्शन की महिमा-पाचरित में राम्यग्दर्शन की यत्र-तत्र बहुत अधिक प्रशसा तथा उसके विपरीत मिथ्यादर्शनादि मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र) की निन्दा की गई है ।१३६ एक स्थान पर कहा है जो उत्कृष्ट है, नित्य है, आनन्दरूप है. उत्तम है, मुल मनुष्यों के लिए मानों रहस्यपूर्ण है, जगत्त्रय में प्रसिद्ध है, कर्मों को नष्ट करने वाला है. शुद्ध है. पविन है, परमार्थ को देने वाला है, जो पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ है और यदि प्राप्त हुआभी है तो प्रमादी मनुष्य जिसकी सुरक्षा नहीं रख सके हैं, जो अभव्य जीवों के लिए. अज्ञेय है और दीर्घ संसार को भय उत्पन्न करने वाला है ऐसा मम्यग्दर्शन ही आत्मा का सबसे बड़ा कल्याण है । १३२ लक्ष्मण ने वनमाला के आग्रह पर पुनः वापिस आने के लिए जब बार-बार शपयें गाई और किसी प्रकार वनमाला को विश्वास नहीं हुआ तब अन्त में लक्ष्मण ने यह कहा-'गदि मैं शीघ्र ही तुम्हारे पास वापिम न आऊँ तो सम्पग्दर्शन से हीन मनुष्य जिस गति को प्राप्त होते है, उमी गति को प्राप्त होऊ ।१३ सम्यग्दृष्टि मनुष्य सात आठ भवों में मनुष्य और देवपर्याय में परिभ्रमण से उत्पन्न हए सुख को भोगना हुमा अन्त में मुनि १२३. पद्य १०५।११६ । १२४. पम० १०५।२१७ । १२५. वाहो, १०५।२१८ । १२६. वही, १०५।२१९ । १२७. वही, १०५६२२० । १२८. वही, १०५।२२१ ।। १२९, वही, १०५/२२२ । १३०. वही, १०५।२२३ । १३१, वह्नी, ४४४, १०५।२४२, २४०, २४३, ९९४४३, ४४, १४:३३४-३३६, १४१२२९, १४।२०६, ६।३३४, २११८७, ५९।२९, २६।१०३, ११४६४३-४४, ८७।१२९, १३०, १०५।२२५-२२७ । १३२ वही, १२३४३-४५ । १३३, वही, ३८३३८ ।

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