Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 266
________________ २५४ : पद्मचरित्र और उसमें प्रतिपादित संस्कृति जहाँ केवली भगवान् रहते हैं २. आकाश में गमन है । उससे चारों ओर सौ-सौ योजन तक सुमिन होता ३. चार मुखों का दिखाई पड़ना । ४. अक्षया का अभाव, ५. उपसर्ग का अभाव, ६. कवल ( ग्रास) अहार का न होना, ७ समस्त विद्याओं का स्वामीपना, ८. केशों और नाखूनों का न बढ़ना, ९. नेत्रों की पलक नहीं टिमकाना, १०. छाया रहित शरीर | देवकुल १४ अतिशय २०५ - १. भगवान् को अ मागधी भाग का होना । २. समस्त बोबों में परस्पर मित्रता होना | ३. दिशा का निर्मल होना । ४. आकाश का निर्मल होना । ५. सभ ऋतु के फल-फूल धान्यादि का एक ही समय फलना । ६. एक योजन तक की पृथ्वी का दर्पणवत निर्मल होना । ७. चलते समय भगवान् के चरण कमल के तले स्वर्ण कमल का होना । ८. आकाश में जय-जय ध्वनि का होना | ९. मन्द सुगन्ध पवन का चलना । १०. सुगन्धमय जल की वृष्टि होना । ११. पवनकुमार देवों द्वारा भूमि का कण्टक रहित करना । १२. समस्त जीवों का आनन्दमय होना । १३. भगवान् के आगे धर्मचक्र का चलना । १४. छत्र, अमर, ध्वजा, घण्टादि अष्ट मंगल द्रव्यों का साथ रहना । द्रव्य निरूपण धर्म, अवर्म, आकाश, काल, जीव और पुद्गल के भेव मे द्रव्य छह प्रकार २० के है । धर्म- -गमन में परिणत पुद्गल और जीवों को गमन में सहकारी द्रव्य है- -जैसे मछलियों के गमन में जल सहकारी है। गमन न करते हुए पुद्गल व जीवों को धर्मद्रव्य गमन नहीं कराता । - ।२०४ अधर्म - ठहरे हुए पुद्गल और जीवों को ठहरने में सहकारी कारण अधर्म २०२. बाबू ज्ञानचन्द जैन बाल गुटका, प्रथम भाग १० ६७ । २०३. १०० १०५।१४२ । २०४, गइपरिणयाण धम्मो पुग्गलजीवाण रामण सहयारी । तोयं जह मच्छाणं अशा व सो मेई ||१७|| - द्रव्यसंग्रह 1

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