Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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धर्म और दर्षन : २५५
दव्य है । जैसे-छाया यात्रियों को ठहरने में सहकारी है । गमन करते हुए जीव तथा पद्धगलों को अधर्म द्रव्य नहीं ठहराता ।२०५
आकाश–जो जीन आदि द्रव्यों को अवकाश देना है उसे साकाश सम्य कहते हैं ।२० लोकाकाश और अलोकाकाश इन दो मेंदों से आकाश दो प्रकार का है । धर्म, अधर्म, काल, पुदगल और जीव जितने माकाश में है वह लोकाकाश है और आकाश से बाहर अलोकाका है ।२०७
लोक रचना-यह लोक अलोकाकाश के मध्य में स्थित दो मृदंगों के समान है, नीचे बीच में तथा ऊपर की ओर स्थित है। इस तरह तीन प्रकार से स्थित ष्ठोने के कारण इस लोक को पिलोक अथवा त्रिविध कहते है।
अधोलोक-मेरु पर्वत के नीचे मात भूमियों हैं। उनमें पहली भूमि रत्नप्रभा है, जिसके अम्बाल भाग को छोड़कर (नीचे के भाग को छोड़कर) ऊपर के दो भागों में भवनवासी तथा व्यन्तरदेष रहते हैं। उस रत्नप्रभा के नीचे महभय उत्पन्न करने वाली शर्करा प्रभा, बालुका प्रमा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमः प्रभा और महातमः प्रभा नाम की छह भूमि है जो अत्यन्त तीन टुःख देने वाली है तथा निरन्तर धोर अन्धकार से व्याप्त रहती है ।२९८ एन मारकियों का तथा उनके दुःख का वर्णन पद्मचरित में अति विस्तार से किया गया है ।
मध्यलोक-मध्यलोक में जम्बूदीप को आदि लेकर शुभ नाम बाले असंख्यात द्वीप और लक्षण समुद्र को आदि लेकर असंख्यात समुद्र कहे गए हैं। ये द्वीप समुद्र पूर्व के द्वीप समुद्र से दून विस्तार वाले हैं, पूर्व-पूर्व को घेरे हुए है
२०५. ठाणजधाण अधम्मो पुग्गलजीवाणठाण सह्यारी ।
छाया जह पहियाणं अचठता णेच सो धरई ।। व्यसंग्रह । गाषा १८ २०६, अवगासदाण जोग्ग जीवादीण वियाण आया ।
जेण्ई लोगागासं अल्लोगागासमिदि दुविहं ।। द्रव्यसंग्रह गाथा, १९ । २०७. घमावमा कालो पुग्गलजीवा य सति जावदिय ।
मायासे सो लोगो सत्तो परदो अलोगुत्ति ।। द्रव्यसंग्रह गाथा, २० । २०८, पदम १०९।११२, २६।७५-७६ ॥ २०९. वही, २६।७८-९४, १४०२७-६३, ६५३०८-३१०, १०५।११३-१३८ । २१०. जम्बूद्वीप मुना दीपा लवणाद्याश्च सागरोः । प्रकीर्तिताः शुभानाम
संख्यात परिवजिता : पद्म० १०५।१५४ । जम्बूदीप लवणोदादयः शुभनामानो द्वीप समुद्राः ।। तत्त्वार्थ सूत्र ३७ ।