Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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दीक्षा धारण कर मुक्त हो जाता हूँ । १६४
सम्यग्दर्शन के भेद - सम्यग्दर्शन दो प्रकार से होता है ।
१. स्वभाव से २ परोपदेश से । इसी अपेक्षा से इसके निसगंज और अधि गमन दो भेद किये हैं । १३५
सम्यग्दर्शन के पाँच अतीचार - शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्य दृष्टि प्रशंसा और प्रत्यक्ष ही उदार मनुष्यों में दोष लगाना सम्यग्दर्शन के पांच अतीचार (दोष) है । {
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धर्म और दर्शन : २४७
शंका – जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहे हुए सुक्ष्म पदार्थों में सन्देह करना । कांक्षा - सांसारिक सुखों की इच्छा करना ।
विचिकित्सा - दुःखी, दरिद्री अथवा रत्नत्रय से पवित्र पर वाह्य में मलिन मुनियों के शरीर को देखकर ग्लानि करना ।
अन्यदृष्टि प्रशंसा - मिया दृष्टियों की प्रशंसा करना ।
पाँच अतीचार र विषेण ने प्रत्यक्ष ही उदार मनुष्यों में दोष लगाना कहा है जबकि तत्त्वार्थ सूत्र में अन्यदृष्टिसंस्तन ( मिथ्यादृष्टियों की स्तुति करना) कहा
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हे
जिन पूजा
पद्मचरित में जिनपूजा के माहात्म्य और उसके प्रकारों का विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है । जो मनुष्य जिनप्रतिमा के दर्शन का चिन्तन करता है वह बेला (दो उपवास) का, जो उद्यम का अभिलाषी होता है वह तेला (तीन उपवास) का, जो जाने का आरम्भ करता है वह चोला ( धार उपवास) का, जो जाने लगता है वह पाँच उपवास का, जो कुछ दूर पहुँच जाता है वह बारह उपवास का, जो बीच में पहुँच जाता है वह पन्द्रह उपवास का, जो मन्दिर के दर्शन करता है वह मासोपवास का, जो मन्दिर के आँगन में प्रवेश करता है, वह छह मास के उपवास को, जो द्वार में प्रवेश करता है वह वर्षोपवास का, जो प्रदक्षिणा देता है वह सौ वर्ष के उपवास का, जो जिनेन्द्रदेव के मुख का दर्शन करता है वह हजार वर्ष के उपवास का और जो स्वभाव से स्तुति करता है वह अनन्त उपवास के फल को प्राप्त करता है । यथार्थ में जिनभक्ति से बढ़कर
१३४. पद्म० १०५।१४४ ।
१३५. तन्निसर्गादधिगमाद्वा || तत्त्वार्थसूत्र १३ ।
१३६. पद्म० १०५।२१३ ।
१३७. तत्त्वार्थसूत्र ७/२३ ० १०५।२११ ।