Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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२३४ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
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भूमियों (खण्डों) से युक्त होते हैं, आदि। धर्म के माहात्म्य को इस रूप में रखने का कारण यही जान पड़ता है कि लोग इन सांसारिक अभ्युदयों से आकृष्ट होकर धर्म के प्रति आस्था रखें। धर्म का वास्तविक उद्देश्य तो मोक्ष ही है। इसी को स्पष्ट करते हुए रविषेण ने कहा है कि जिस प्रकार नगर की ओर जाने वाले पुरुष को छेद निवारण करने वाला जो वृक्षमूल आदि का संगम प्राप्त होता है वह अनायास ही प्राप्त होता है उसी प्रकार जिनवासन रूपी मोक्ष की ओर प्रस्थान करने वाले पुरुष को जो बेव और विद्यावर आदि की लक्ष्मी प्राप्त होती है वह अनुषङ्ग से ही प्राप्त होती है, उसके लिए मनुष्य को कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता है । १०
उत्कृष्ट धर्म - चूंकि रविषेण जैनधर्म के अनुयायी थे। जैन धर्म के सिद्धान्तों का उन्होंने अम्स: परोक्षण करके उसे श्र ेष्ठ पाया था इसलिये उन्होंने कहाजिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कथित वाक्य ही उत्तम वाक्य है, जिनेन्द्र निरूपित तप ही उतम तप है, जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा प्रोक्त धर्म ही परमधर्म है और जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा उपदिष्ट मत हो परममत है ।" आज तक जितने सिद्ध ( मुक्त पुरुष) हुए हैं, जो वर्तमान में सिद्ध हो रहें और अल तक विद्ध होंगे वे जिनेन्द्र देव द्वारा देखे हुए धर्म के द्वारा ही होंगे अन्य प्रकार से नहीं ।'
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धर्म के भेद - आचरण की अपेक्षा धर्म के दो भेद हैं १२ १. सागारधर्म ( गृहस्थ धर्म ), २. अनगार धर्म ( मुनि धर्म) । इन दो प्रकार के धर्मों को मनुष्यों के दो आश्रम भी कहा गया है । *४ महाव्रत और अणुव्रत के भेद से भी धर्म दो प्रकार का कहा गया है। इनमें से पहला अर्थात् महाव्रत गृहत्यागी मुनियों के होता है और दूसरा अर्थात् अणुव्रत संसारवर्ती गृहस्थों के होता है ।'
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गृहस्थ धर्म- गृहस्थों का धर्म मुनिधर्म का छोटा भाई है ।"" गृहस्थ धर्म के द्वारा यह मनुष्य उत्तमोत्तम भांगों का भोग करता है 1 बाद में मुनिदीक्षा धारण कर मोक्ष प्राप्त करता है ।" गृहस्थाश्रमवासी लोगों को पाँच अत चार शिक्षाक्षत, तोन गुणवत- इस प्रकार बारह व्रतों का पालन करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त यथाशक्ति हजारों नियम धारण करने पड़ते हैं । १६
९. पद्म० १४११२६-१२८ ।
११. वही, ६।३०० ।
१३. बड़ी, ३३ । १२१ । १५. हो, १४ १६४ । १७. वही, ९।२९६ । १९. बही, १४/१८२-१८३ १
१०. पद्म० ६।३०१-३०२१ १२. वही, ३१।१९
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१४. वही ५।१९६ । १६. वही, ३२ १४६ ॥
१८. वही, ६।२९८ ।