Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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कला : १८५
की यह रूपरेखा सदा वर्तमान रही। बाद में द्वारों और भित्तियों को प्रकल्पना से इन भवनों को अन्य भवनों के सादृश्य में लाने की परम्परा पल्लवित हई। सम्भवतः यह प्रभाव राजनैतिक था । सभा राजनैतिक निवेश का एक प्रधान अंग थी जिसको आजकल की भाषा में दरबार के माम से पुकारते है ।१७१ पारित में इस प्रकार के दरबार (राजसभा२७२) का वर्णन किया गया है। ३८वें पर्व में कहा गया है कि समाञ्जलि नगर में लक्ष्मण ऊंचे-ऊंचे देव मन्दिर, कुंओं, वापिकाओं, सभाओं, पानीयशालाओं और अनेक प्रकार के मनुष्यों को देखते हए प्रविष्ट हए 1१७३ राजसमा के अतिरिक्त अन्य लोगों की समायें होती थीं। अष्टालिक पर्व के अवसर पर लंका में मनुष्यों ने एक से एक बढ़कर सभायें बनाई थीं । ३७४ राजसभा के चारों ओर बहुत बड़ा खुला मैदान होता था जहां पर बहुत से लोग आकर बैठते थे। यह मैदान राजमहल की दीवारों से घिरा रहता था। राजमहल के सघन गवाक्षों (खिड़कियों) से स्त्रियाँ झांककर सभा में होने वाले कार्यकलापों को देखा करती थीं ।२५ सघन गवाक्षों से एक प्रकार का धुंधला चित्र ही दिखाई देता होगा अतः भागे मैदान की और छपरियाँ (नियूह) बनाई जाती भी, ना से सासद विज्ञापन। से हो नियूँह पर भाकर जितपया लक्ष्मण पर मोहित हो उसे शक्ति झेलने से इशारे से मना करने लगी थी ।३७६
महाभारत में सभाओं के बहुत सुन्दर वर्णन मिलते हैं। महाभारत का एक पर्व ही सभापर्व के नाम से विख्यात है, जिसमें इन्द्रसभा, वरुणसभा, कुबेरसभा तथा ब्रह्मसभा के वर्णन हैं। उन सभाभवनों में प्राचीन वैदिक सभा की रचनाप्रससि ही देखने को मिलती है। गणराज्यों में सभाभवनों की एक नवीन परम्परा विकसित हुई। तत्कालीन समाभवनों में न केवल राजनीतिक चर्चा अथवा व्यवहार-निर्णय ही सम्पन्न होते थे वरन् वाणिज्य-बार्ताओं के लिए भी वे स्थानविशेष उपयुक्त समझे जाते थे। सभाभवन के विकास का तीसरा सोपान वह था अब सभाभवनों में मनोरंजन, इत, आमोद, वादविवाद तथा विभिन्न प्रतियोगितायें पल्लवित हुई ।३७७ पमचरित में इस तीसरे सोपान की परम्परा में एक नृत्य-सभा का वर्णन मिलता है जहाँ इस प्रकार को नर्तकियों ने
३७१. द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल : मारतीय स्थापत्य, पृ० १९३ । ३७२. प. ३८५८९ ।
३७३. प. ३८६३-६४ । ३७४, वही, ६८।११।। ३७५, वही, ३८।९६ । ३७६. वहीं, ३८९७ । ३७७, द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल : भारतीय स्थापत्य, पृ० १९३ ।