Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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कला : १८३
प्रासाद-प्रासाद-रचना वास्तुकला (स्थापत्य) का एक महत्वपूर्ण अंग है। प्रासाप शब्द बैसे तो अन-साधारण में राजाओं के महलों के लिए प्रायः प्रयुक्त होता है परन्तु वास्तुशास्त्रीय परिभाषा में प्रासाद का तात्पर्य विसुद्धरूप में देवमन्दिर से है। प्रासाद में राज शब्द जोड़ देने से वह राजमहल का बोधक बन जाता है । अतः संक्षेप में प्रासाद शब्द परम्परा से देवमन्दिरों एवं राजमहलों दोनों के लिए प्रयुक्त हुआ है। अमरकोश में 'हादि धनिन वासः प्रासादो देवभूभुजाम्' जो उल्लेख है वह उपर्युक्त कथन की पुष्टि करता है। शिल्परल में लिखा है :
'देवादीनां नराणां च येषु रम्यतया चिरम् ।
मनांसि च प्रसीदन्ति प्रासादास्तेन कीर्तिताः ।।' अर्थात् जिन भवन-विशेषों में पाषाण शिलाओं, इष्टिकाओं तथा मुधा एवं वचलेप आदि दृढ़ वस्तु संभारों से स्थायित्व प्रदान करने वाले वस्तुसौन्दर्य की चिर प्रतिष्ठा संस्थापित हो चुकी है और इसी सौन्दर्य के कारण ये भवन देवादिक एवं मनुष्यादि दोनों के मनों को प्रसन्न करते हैं, अन्तःकरण की कलिका खिलाते हैं, अत: ये भवन प्रासाद कहलाते हैं। पद्मचरित में प्रासाद शन्द का प्रयोग प्राय: राजप्रासाद के लिए ही हुआ है। नाभिराय के क्षेत्र के मध्य जी कल्पवृक्ष था वह प्रासाद के रूप में स्थित था और अत्यन्त ऊंचा था 1' उनका वह प्रासाद मोतियों की मालाओं से व्याप्त या, स्वर्ण और रत्नों से उसकी दीवालें बनी थीं, बायों और उद्यान से सुशोभित था और पृथ्वी पर एक अद्वितीय हो पा १२ भीमवन में दशानन का जो प्रासाद था, उसके सात लण्ड ये ।। एक अन्य स्थान पर रावण के प्रासाद की उपमा शक-प्रासाद से दी गई है। इस प्रासाद में अनेक स्तम्भ थे ।१४ राजा जनक ने विद्याधरों के ऐसे प्रासाद देखे थे जिनके शिखर सन्ध्या के बादलों के समान सुशोभित थे, जो गोलाकार स्थित थे तथा राजप्रासाप की सेवा करते हुए के समान जान पड़ते थे।५५ क्षेमामलि नगर में लक्ष्मण ने विमान के समान आभा वाले तथा पत्रमा के समान धवल उत्तमोत्तम भवनों को देखा । इन सब उल्लेखों से प्रासादों के सौम्य, रचना
३६०, द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल : भारतीय स्थापत्य, पृ० २२०, २२१ । ३६१. पप. ३३८९ ।
३६२. पय ३।९० । २६३. वही, ८।२९, ३० ।
३५४. वही, ५३१२६४ । ३६५. वही, २८५८४ ।
३६६. वहीं, २८।८० ।