Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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१६० : पप्रचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
जैन-साधु केशों का लुचन करते हैं, उनके लिए जटा रखना निषिद्ध है, फिर भी पधचरित में जिनमूर्ति को जटारूपी मुकुट से युक्त कहा है। इससे अनुमान होता है कि इस प्रकार की मूर्तियां उनके तप को अवस्था का द्योतन कराने के लिए बनाई जाती होंगी । पक्रवर्ती भरत ने फैलास पर्वत पर सर्वरत्नमय दिव्य मन्दिर बनवाकर ऋषभदेव की प्रतिमा विराजमान कराई थी। वह सूर्य के समान देदीप्यमान थी, पांच सौ धनुन ऊँची पी, दिव्य थी । उसकी पूजा गन्धर्व, देव, किन्नर, अप्सरा, नाग तथा दैत्य आदि किया करते थे । १२ वंशगिरि पर्वत पर राम ने हजारों जिम-चैत्य (जिम प्रतिमाय) बनवाए थे ।१५३ बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रत भगवान के समय समस्त भरतोत्र में वह पृथ्वी अर्हन्त भगवान् की पवित्र प्रतिमाओं से अलंकृत थी । उन मन्दिरों में स्वर्ण, चांदी आदि की बनी छत्रत्रय, चामरादि परिवार से सहित पांच वर्ग को अत्यन्त सुशोभित जिनप्रतिमायें थी ।१६५ विभीषण के भवन में पनप्रम जिनेन्द्र की पचरागमणिनिर्मित अनुपम प्रतिमा विराजमान पी जो अपनी प्रभा से मणिमय भूमि में कमलसमूह की शोभा प्रकट करती थी।" ___ शासनदेव-जैन-साहित्य में मन्दिरों के रक्षक के रूप में शासन-देवों का उल्लेख आया है । पद्मचरित में जैन मन्दिरों (जैनाः प्रासादः) को समीचीन रक्षा करने में निपुण, कल्याणकारी तथा भक्तियुक्त शासन-देवों से अधिष्ठित बतलाया गया है।
रविमूर्ति (सूर्यमूर्ति)-सीता की तमोमयी अवस्था का वर्णन करते हुए रविषेण ने कहा है कि वस्त्रमात्र परिग्रह को धारण करने वाली आर्या सीता बाप अलंकारों से यधपि रहित थो, तथापि यह ऐसी सुशोभित हो रही भी मानो रवि को मूर्ति की तरह संयत हो। इस लेख से उस समय रविमूर्ति बनाने को प्रथा का संकेत मिलता है ।
मुनिमूर्ति-मुनि-भूतियाँ भी प्राचीनकाल में स्थापित कराई जाती थीं।
१६१. पदम० २८.९५ ।
१६२. पदम ९८१६३-६५ । १६३. घही, ४०१२७ ।
१६४. वही, ६७।९, १० ! १६५. बही, ६७।१९।
१६६. वही, ७८६८, ६९ । १६७. अधिष्ठिता भश भक्तियुक्तः शासनदेवतैः ।
सद्धर्मपक्षरक्षाप्रवणः शुभकारिभिः ।। पच० ६७।१२। १६८. बाह्यालङ्कारमुफ्ताऽपि वस्त्रमात्रपरिहा ।
मार्या रराज वैदेही रविमूत्यय संयता । पा. १०५:१०३ ।