Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
View full book text
________________
१६६ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
१९९
-
उपमार्गपुर को मुहल्लों में बांटते है ।१९ पद्मचरित में रथ्याओं को विराहों और चौराहों सहित कहने से इस बात की पुष्टि होती है।' त्रिक- चत्वर (तिराहा, चौराहा ) – प्राचीन मार्गविन्यास में मार्ग-संगम पर विशेष अन्तर प्रदान करके वहाँ पर कोई न कोई सुन्दर वस्तु रखकर उसकी शोभा बढ़ाई जाती थी । तिराहों और चौराहों पर भी किसी न किसी वास्तुकृति के योग से ये संगम सुन्दर बनाए जाते थे । २०० किसी विशेष अवसर पर तो इनकी शोभा में चार चाँद लग जाते थे । पद्मचरित में ऐसे ही एक विशेष अवसर पर (सोता के आगमन पर ) इन तिराहों, चौराहों तथा इनसे सहित मार्गों को सुगन्धित जल से सींचने तथा फूलों से आच्छादित किए जाने का उल्लेख
I
२०१
जिनालय (जेना प्रासादा १०२ निवेश की बहुमुखी योजना में देवायसन-विधान प्राचीन पुरनिवेश का महत्वपूर्ण अङ्ग है। पद्मचरित के एक उल्लेख के अनुसार पर्वत - पर्वत पर गाँव-गाँव में, पत्तन पत्तन में, महल- महल में, नगर-नगर में, संगम-संगम में तथा मनोहर और सुन्दर चौराहे चौराहे पर मन्दिर ( जिनालय) बनाये जाने की परम्परा की सूचना मिलती है २०* इससे यह ज्ञात होता है कि नगर के अंदर तथा बाहर सभी स्थानों पर मंदिर बनाये जाते थे । मे मन्दिर देश के अधिपति राजाओं तथा गांव का उपभोग करने वाले सेटों द्वारा बनाये जाते थे । २०६ इन मन्दिरों में तीनों काल में बन्दना के लिए उद्यत साधुसमूह ( साधुसंघ ) रहता था । २०५ साधुसंघ के रहने के उल्लेख से मन्दिरों के व्यावहारिक महत्व पर भी प्रकाश पड़ता है। प्राचीन काल के मन्दिर महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों का काम तो देते ही थे, साथ ही जनता की धार्मिक जिज्ञासा के पूर्ण समाधाता थे। जिज्ञासु धार्मिक जनता मन्दिरों में जाकर धर्म का उपदेश सुनती थी तथा भजन संकीर्तन में भाग लेकर उपास्य देव को भक्ति में विभोर होकर अपने को कृतकृत्य करती थी ये मन्दिर नगर की शिक्षा, दीक्षा, धर्म एवं भक्ति, अध्यात्म एवं चिन्तन, योग एवं वैराग्य के जीते-जागते केन्द्र थे | २०१
१९८. विजेन्द्रनाथ शुक्ल भारतीय स्थापत्य, पू० ८६ ।
१९९. पद्म० ९९।१२ ।
२०१. पद्म० ९९|१३ |
२०३. वही, ६७।१४-१५ ।
२०५. वही, ६७ १७ ।
२०६. द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल : भारतीय स्थापत्य, पू० ९७
२०० भारतीय स्थापत्य, पु० ८९ ।
२०२. पथ० ६७.११ |
२०४. वही, ६७ ११ ।