Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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१६४ : पपरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
कहते हैं-उस सुरम्य एवं समतल भू प्रदेश पर राजधानी नगर का निवेश करना पाहिए, जो विविध प्रकार के विटपों, लताओं और पौधों से आकीर्ण हो, जहाँ पर पशु-पक्षी तथा जीव-जन्तुओं को पूर्ण सम्पन्नता हो, जहाँ पर खाद्य एवं जल की पूर्ण सुलभता हो, जहाँ पर चारों ओर हरियाली, बाग-बगीचे, जंगल के प्राकृतिक सौन्दर्य दर्शनीय हो । जहाँ पर समुद्र तट पर गमनपोल नोकामों के यातायात द्वारा उनका संचार दृष्टिपए रहता हो और यह स्थान पर्वत से बहुत दूर न हो । १४ शुक्राचार्य द्वारा कथित ये सभी लक्षण न्यूनाधिक संख्या में पदम चरित में बणित मगर के वातावरण में पाए जाते हैं। उदाहरण के लिए रविषेण को आदर्शभूत विजयार्च पर्वत की दक्षिण श्रेणी पर स्थित रखनपुर आदि नरियों के वातावरण पर प्रकाश डाला जाता है।
रयनूपुर आदि नगरिया शापिकाओं और बगीचों से ज्याप्त है। स्वर्गसम्बन्धी भोगों का उत्सव प्रधान करने वाली हैं। बिना जोले उत्पन्न होने वाले सब प्रकार के फलों से सहित है, सन' प्रकार की ओषत्रियों से पाकीर्ण है और सबके मनोरखों को सिद्ध करने वाली है ।१८५ वहां पर्वतों के ममान अनाज की राशियाँ हैं, यहाँ की खत्तियों का कभी क्षय नहीं होता, वापिकाओं और बगीचों से घिरे हए वहाँ के महल बहुत भारी कान्ति धारण करते है । १४५ मार्ग लि और कण्टक से रहित तथा मुख उपजाने वाले है।१८७ जिनकी मधुर ध्वनि कानों को आनन्दित करती है ऐसे मेघ वहाँ चार रास तक योग्य देश तथा योग्य काल में अमत के समान वर्षा करते है। वहां की हेमन्त ऋतु शीतल वायु से रहित तथा आनन्दप्रद होती है । ८९ वहाँ ग्रीष्म ऋतु में भी सूर्य मन्द तेज का धारक रहता है । ९० वहाँ की अम्म ऋतुएं भी मनोवांछित वस्तुओं को प्राप्त कराने वाली है तथा वहाँ को निर्मल दिशामें नीहार (कुहरा आदि) से रहित है।" यहाँ ऐसा एक भी स्थान नहीं जो सुख से युक्त न हो। वहां की प्रजा सदा भोगभूमि के समान क्रीड़ा करतो रहती है, ११२ इत्यादि ।
मार्ग-विनिवेश-पुरनिवेश में स्थापत्य का परम कौशल मार्ग-विनिवेषा है । मागों का निवेशन केवल पुर की विभिन्न वर्गीय मावास-मालिकाओं के लिए
१८४. शुक्रनीति प्र० अ० (मारतीय स्थापत्य, पृ० ७४) । १८५, पम० ३।३१६-३१७ ।। १८६, पप० ३१३२४ । १८७. वहीं, ३१३२५ ।
१८८. वहीं, ३।३३६ । १८९, वही, ३।३२७।
१९०, पही, ३१३२८ । १९१. वही, ३१३२९ ।
१९२. वही, ३।३३० ।