Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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कला : १६३
बखड़े पूंछ उठाकर उनके आंगनों में चीड़ियां भर रहे थे। फूलों से सुन्दर लताओं को छाया में बैठे हुए तोता मैना आदि पक्षी भी बैठकर स्पष्ट उच्चारण करते थे। मठों में छोटे-छोटे वृक्ष थे, जिन्हें कभ्यामें अपना भाई समझकर सींचा करतो थीं । उन तपस्वियों ने विभिन्न प्रकार के मधुर फल, सुगन्धित पुष्प, मीठा जल आदर से भरे स्वागत के शब्द अर्ध्य के साथ दिए भोजन, मधुर संभाषण, कुटी का दान और कोमल पत्तों की शम्मा आदि पकावट को दूर करने वाले उपचार से उनका बहुत सम्मान किया । १७७ उस आश्रम में रहने बाले तापस सूखे पत्ते खाकर तथा वायु का पानकर जीवन बिताते थे । तापसों के साथ उनकी स्त्रियाँ भी रहती थीं ।
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विद्वानों के अनुसार कालान्तर पाकर में ही छोटे-छोटे गुरुगृह, कुलपति कुटीर, छात्रावास, भिक्षु उटज बड़े-बड़े नगरों के आकार में परिणत हो गए। ऐसे विश्वविद्यालयीय नगर आज भी पाए जाते हैं। जैसे कैम्ब्रिज आक्सफोर्ड, वाराणसी, प्रयाग आदि विश्वविद्यालयीय नगर । १८०
दुर्ग - प्राचीन काल में दुर्ग नगर के रूप में तथा नगर दुर्ग के रूप में सन्मि विष्ट होते थे। इसीलिए शब्द कल्पद्रुम में पुर का अर्थ दुर्ग, अधिष्ठान, कोट्ट तथा राजधानी लिखा है । प्राचीन काल में जब शासनपद्धति तथा शासनव्यवस्था के वे सुन्दर केन्द्रीय साधन उपलब्ध नहीं थे, जिनसे किसी विशाल भूभाग पर शासन की सुव्यवस्था तथा शान्तिरक्षा का प्रवन्ध किया जा सके । विभिन्न बस्तियों, चाहे वे ग्राम हों अथवा नगर, अपनी-अपनी रक्षा का उत्तरदायित्व स्वयं संभालती थीं । १८२ इसीलिए दुर्गभ दुर्गं बनाए जाते थे । पद्मचरित में ऐसे दुर्गम दुर्ग का उल्लेख मिलता है। कालान्तर में साधनों और आबादी के विकास के साथ-साथ इस प्रकार के कुछ दुर्ग नगर के रूप में परिणत हो गए ।
देश- चयन - प्रकृति, जनपद एवं जलवायु को दृष्टि में रखकर देश भूमिचयन किया जाता है। राजधानी नगर के निवेश के सम्बन्ध में आचार्य शुक्र
१७८, पद्म० ३३११२ ।
१७७ पद्म० ३३।३-९ ।
१७९. वही, ३३१५ ॥
१८० द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल भारतीय स्थापत्य, पृ० ५९ ।
१८१. पुरं कोट्टमषिष्ठानं कोट्टों स्त्री राजधान्यपि ' - शब्दकल्पद्रुम ( भारतीय
स्थापत्य, पृ० ६६ ) |
१८२. भारतीय स्थापत्य, पू० ६५-६६ ।
१८३. पद्म० २६१४७ ।