Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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कहा : १५९
से गढ़कर) पीटकर, हाथ से या औजार से डॉलिया कर (हाय से उपकरण को जहाँ जैमी आवश्यकता हो, ऊंचा उठाकर तथा मीछे दबाकर प्राकृति उत्पन्न करना) ठप्पा करके या सांचा छापकर (अर्थात् जो प्रक्रिया जिस उपादाम के अनुकूल हो एवं जिस प्रक्रिया में जो खिलता हो), उत्पन्न की हुई आकृति को मूर्ति कहते हैं ।१५४
जिन-प्रतिमा-पाचरित में हमें अनेक स्थलों पर विभिन्न मूर्तियों के उल्लेख प्राप्त होते हैं। इनमें सर्वाधिक उल्लेख तीर्थकर की मूर्ति या प्रतिमा के विषय में मिलते हैं। यहाँ जिन-प्रतिमा को चैत्य भी कहा है 1१५५ ये चैत्य कृषिम और अकृत्रिम दोनी प्रकार के थे । ५१ प्रतिमायें विशेषतया पंचवर्ण (काला, नीला, हरा, लाल, सफेद) की निर्मित होती थीं । रथनूपुर के बन में निर्मित जैनमन्दिर में राजा जनक ने जिस जिन-प्रतिमा का दर्शन किया था बह प्रतिमा अग्नि की शिखा के समान गौर थी। उसका मुख पूर्ण चन्द्रमा के समान था । मह पद्मासन से स्थित तथा बहुत ऊँची थी। उसके सिर पर जटाएँ यो । १५ साम ही साथ वह आठ प्रातिहायों से युक्त की प्राविहाय से युक्त जिन-प्रतिमा बनाये जाने के उल्लेख से यह सिद्ध होता है कि उस समय यक्षों
और देवों की भूतियां भी तीर्थकर मति के साथ बनाई जाती थी। यहां यष्ट प्राप्त स्मरणीय है कि कुषाण-काल को जिन-मूतियों में प्रतीफ-संयोजना के अतिरिक्त यक्ष-यक्षिणी-अनुगामित्व प्राप्त नहीं होता। यह विशेषता गुप्तकाल से प्रारम्भ होती है, जबसे तीर्थकर की प्रतिमाओं में यक्ष-यक्षणियों आदि का साहचर्य अनिवार्य बन गया । १९० .
१५४. रामकृष्णदास : भारतीय मूर्तिकला, पृ० १५, १६ । १५५. पप० १८।५६ ।
१५६. पद्म ९८०५६ । १५७. वही, ९५।२७ ।
१५८. मही, २८५९५ । १५९. पद्म: २८१९२, जैनग्रन्थों में तीर्थ कुरों के ४६ मूलगुणों का उल्लेख आता
है। इनमें आठ प्रातिहार्य भी सम्मिलित है । ये प्रातिहार्य तीर्थर के केवलशाम के बाद प्रकट होते हैं। इनकी गणना इस प्रकार है१. अशोकवृक्ष का होना, २. रत्नमय सिंहासन, ३. भगवान् के सिर पर तीन छत्र का फिरना, ४, भगवान के पीछे भामण्डल का होना, ५. निर. क्षरी विव्यष्यमि, ६. देवों द्वारा पुष्पवृष्टि, ७. यक्षों द्वारा चौंसठ पवरों
का डुलाना, ८. दुन्दुभि-बाजों का बजना । १६०, द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल : भारतीय स्थापत्य, पृ० ४९३ ।