Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
View full book text
________________
१२२ : पनवरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
मूसंगोष्ठो५१ इन तीनों गोष्टियों के नाम आए है। पास्स्यायन तथा जिनसेन ने अपने सम्यों में गोष्ठियों का अच्छा निरूपण किया है ।५२
कथा-कहानियां कहने और सुनने की मनुष्य को आदिम प्रवृत्ति रही है । पप्रचरित में भी इस प्रवृति के स्पष्ट दर्शन होते है । ३६ पर्व में कहा गया है कि राम, लक्ष्मण तथा सीता स्वैच्छानुसार पृथ्वी पर बिहार करते हुए नाना प्रकार के स्वादिष्ट फल खाते, विचित्र कथायें और देवों के सामान रमण करते हुए वैजयन्तपुर के समीपवती मैदान में पहुँचे ।५३ एक अन्य स्थान पर कहा गया है कि आत्मीय जनों के साथ मिले हुए राम ने प्रभादरहित हो उत्तमोत्तम कथायें कहते हुए सुख से रात्रि व्यतीत की । वनवास के समय सघन पत्तों पाले गुमखण्ड में बैठकर मनोहर-मनोहर कषाओं से सीता का मनोविनोष करना५५ राम-लक्ष्मण अपना प्रमुख कर्तव्य मानते थे। इस प्रकार कथाओं की जस समय विशेष महत्ता थी। विशेषकर सत्पुरुषों की कथा को विशेष महत्त्व दिया जाता था । सत्पुरुषों की कथाओं की महत्ता प्रतिपादित हुए करते हुए रविषेप कहते हैं-जिस पुरष की वाणी में अकार मादि अधार व्यक है पर जो सत्पुरुषों की कथा को प्राप्त नहीं कराई गई वह वाणी निष्फल है ।" महापुरुषों का कीर्तन करने से विज्ञान वृद्धि को प्राप्त होता है, निर्मल यश फैलता है और पाप दूर चला जाता है। जोवों का यह शरीर रोगों से भरा हुआ है तथा
५१. वही, १५।१८४ ५२. जिनसेम ने अपने आदि पुराण में गीतगोष्ठी (१२।१८८, १४।१९२)
वानगोष्ठी (१४११९२) कथागोष्ठी (१२१८७), जल्पगोष्ठी (१४११११) पदगोष्ठी (१४॥१९१), काग्यगोष्ठी (१४.१९१), कलागोष्ठी (२९/९४), विद्यासंवाद गोष्ठी (७६५) नृत्यगोष्ठी (१४।१९२), प्रेक्षणगोष्ठी (१४॥ १९२) तथा चित्रगोष्ठी (१४।१९२) के नाम दिए है । कामसूत्र के अनु. सार विद्या, बुद्धि, सम्पत्ति, आयु और शील में अपने समान मित्रों या सहचरों के साथ, वेश्या के घर में, महफिल मैं अथवा किसी नागरिक के निवासस्थल पर गोष्ठी का समवाय आयोजित करना चाहिए। ऐसे स्थान पर साहित्य, संगीत और कला जैसे विषयों पर बालोचनात्मक
तुलनात्मक चिन्तन किया जाय (कामसूत्र ॥१९), ५३. पम० ३६.१०, ११। ५४. वही, ३७।९३ । ५५. वहीं, ३९।५ ।
५६. वही, ११२३ । ५७. मही, श२४ ।