Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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१३४ : पचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति पा।१४५ पपचरित में मदनोत्सव का विशेष वर्णन उपलब्ध नहीं होता। हो सकता है जैनों की पार्मिक विचारधारा से इस उत्सव का विरोध होने के कारण विषेण ने इसका विस्तृत विवरण देना आवश्यक न समझा हो, किन्तु इस उत्सव के आकर्षक लोकिक रूप से वे अवश्य प्रमायित रहे होंगे । इसीलिए ४७वे पर्व में उन्होंने सुप्रीष की कन्या मदनोत्सवा को मदन के उत्सब स्वरूप कहा है ।
विद्या-निर्मित कीड़ाये विद्याधर लोग विद्या के प्रभाव से अनेक प्रकार की कीड़ायें किया करते थे । इसके लिए अनेक प्रकार की विधायें आमोद-प्रमोद का अच्छा साधन थीं, साथ हो इनसे विद्या के प्रभाव १४७ को भी जाना जा सकता था । उदाहरण के लिए विद्या के प्रभाव से दशानन जिन-जिन क्रीहाओं को करता था, घे ये हैं :
१-एकरूप होकर भी अनेक रूप धरकर स्त्रियों के साथ क्रीडा करना 1१४८
२-सूर्य के समान सन्ताप उत्पन्न करना । १४५ ३--चन्द्रमा के समान चौनी छोड़ना । ५० ४-अग्नि के समान ज्वालामें छोड़ना । ५-भेष के समान वर्षा करना । ११२ ६-वायु के समान बड़े-बड़े पहाड़ों को चलाना ५३ ७-इन्द्र जैसा प्रभाव जमाना ।५५४ ८-समुद्र बन जाना ।१५५ ९- पर्वत बन जाना । १५६ १०-मदोन्मत्त हाथी बन जाना । १५७ ११-महावेगशाली घोड़ा बन जाना ।१५८
१४५. १० हजारीप्रसाद द्विवेदी : प्राचीन भारत के कलारमफ विनोद,
पृ० १०८॥ १४६, मदनोत्सवभूताम्या प्रसिद्धा मदनोत्सवा ।। पप० ४७।१४० । १४७. पम ८८५ ।
१४८. पन० ८1८६ । १४९. वही, ८६८६।
१५०. वही, ८1८६ । १५१, वही, ८८७।
१५२. वही,८८७। १५३. वही, ८1८७ ।
१५४. यही, ८1८७ । १५५. वही, ८1८८।
१५१. वही, ८८८। १५७. वही, ८८८।
१५८. बहो, ८1८८1