Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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१५४ : पामचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
अनवद्य वाद्यों में प्राचीनकाल के बाथ मृदङ्ग या मार्दल या मुद्दल, मुरज, पणव, दर्दुर, हुडुपका, पुष्कर, घट, डिडिम, लक्का, आधुज, कुहुक्का, फुडुवा, ढवस, घळस, चना, समरुक, मण्डि, ढक्का, ढक्कुलि, सेल्का , मल्लरी, भाण, त्रिवली, दुन्दुभि, भेरी, निस्साण आदि है।१२८
तन्त्री-प्राचीन ग्रन्थों में वीणा के अनेक प्रकारों का उल्लेख हुआ है। संगीत-रत्नाकर के अनुसार एकतन्त्री नामक वीणा के दण्ड की लम्बाई तीन हस्त अर्थात् ७२ अंगुल (५४ इंच) होती थी। दण्ड की परिधि या घरे का नाप एक वितस्ति या वित्ता (९ इंच) होता था। दण्ड का छिद्र पूरी लम्बाई में डेढ़ अंगुल (११ इंच) व्यास का रहता था। एक सिरे से १७ अंगुल की दूरी पर मालानु या कव को बांधना होता था । दण्ड आबनूस की लकड़ी से मनाया जाता था। कद्दू का भ्यास ६० अंगुल (४५ इञ्च) होता था। दूसरे सिरे में ककुभ रहता या। ककुम के ऊपर धातु से बनाई हुई कूर्मपृष्ठ की माँति पत्रिका होती थी। कद्दू के ऊपर नागपाशसहित रस्सी बांधी जाती थी। ताप्त अर्थात् स्नायु की तन्त्री को नागपाश में पौधकर मकुभ के ऊपर की पत्रिका के ऊपर शंकु या खूटी से बांधा जाता था। तन्तु और पत्रिका के बीच में नादसिद्धि के लिए वेणु निमित जीवा रखते थे। इस वीणा में सारिकायें नहीं है। बायें हाथ के अंगूठा कनिष्ठिका और मध्यमा पर वेनिमित कनिका को धारण करके सया कद्दू को अधोमुख करके, ककुभ को दाहिने पांव पर रखकर कद्र को कंधे के कार रहने की स्थिति में रखकर जीवा से एक बित्ता की दूरी पर ऊँगली से वादन किया जाता था । १२१ पनचरित में तत का स्वरूप समझाते हुए तन्त्री शब्द का प्रयोग किया गया है।
अवनवा वाद्य मृदङ्ग-मृपङ्ग शब्द शादिकाल में पुष्कर वाद्य का नाम था । पुष्करवाद्य में चमचे से मढ़े हुए तीन मुख पे। दो मुख बायों और दाहिनी ओर रहते थे, तीसरा मुख ऊपर रहता था। उसका पिण्ड मत् या मिट्टी से बनाया जाता था। इसी कारण इसका नाम मृदा पड़ा। कुछ समय बाद बायों और दाहिनी ओर दो ही मुखवाले वार की सुष्टि हुई, पश्चात् उसका पिण्ड लकड़ी से बनाया गया । .
१२८. संगीतशास्त्र, पृ० २५३, २५४ । १२९. वहीं, पृ० २५५ । १३०. पप० २४।२० ।