Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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कला : १५५
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मृदङ्ग का पिण्ड बीजवृक्ष ( तमिल में वे ) या पनस की लकड़ी से बनाया जाता है । उसकी लम्बाई २१ (२५ इच) है। लकड़ी का दल आधे अंगुल का है। दाहिना मुख १४ अंगुल और बाँया मुख है। दोनों ओर के मुख चमड़े से मढ़े जाते थे रहता था । उस चमड़े के घेरे में २४ छिद्र अन्तर एक अंगुल रहता था । उन छिद्रों में से ( वन, बी) से बाँधा जाता था। इन दोनों पूड़ियों को चमड़े की रस्सी से दोनों ओर खींचकर दृढ़ता से बाँधा जाता था। रस्सी के इम्घन को ढोला करने पर सानने से मृदङ्ग के स्वर को ऊँचा या नीचा कर सकते थे। पकाये हुए चावल की अपामार्ग के भस्म के साथ मिलाकर दोनों पूड़ियों के मध्य में लगाया जाता था। उसका नाम वोहण है । संगीत- रत्नाकर में कहा गया है कि बायीं और अधिक और दाहिनी मोर थोड़ा कम लगाया जाता था । पर आजकल मायें मुख में बजाने से पूर्व मुंबा हुआ है और दाहिने मुख में मृदङ्ग बनाते समय ही को मिश्रित कर लीन देते है । ११५
छोटी में लकड़ी का कोयला, पकाया हुआ चावल तथा गौंद व्यास के चक्राकार में लगाते हैं । उसे स्थिर रहने
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१३ अंगुल है, मध्य में १५ अंगुल किनारे पर चमड़ा घनता से युक्त
छिद्रों का पारस्परिक
रहते थे । वेणी की
तरह चमड़े की रस्सी
पदह [*२] ( नगाड़ा) - आबनूस की लकड़ी से बनाया जाता था । उसकी लम्बाई २१ हाथ की है। मध्य में घेरे का नाप ६० अंगुल है । दाहिने मुख का व्यास ११॥ अंगुल है 1 बायें मुख का व्यास १० अङ्कल है । दाहिनी ओर लोहे का पट्टा होता है । बायीं ओर लताओं का पट्टा
लगता है। चमड़े के
भल पूर लोहनिर्मित तीसरा पट्टा से मढ़ाया जाता है। बायीं ओर के पतली रस्सी से सोने, चांदी आदि से को ठीला बांधा जाता है। जाता है। इसे कोण नामक कुछ छोटा रहे तो उसे देशी स्कन्द है । १३३
लगाना पड़ता है। उससे चार दोनों ओर मृत बछड़े के चमड़े घेरे में सात छिव बनाकर उनमें बनाए हुए चार अंगुल लम्बे सात कलशों दाहिनी ओर से उन्हें फिर उस चमड़े से बांध दिया साधन या हाथ से बजाते हैं। इसी तरह का पट पटह या अड्डा बुज कहते हैं।
पटह् का देवता
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छक्का १९४ . इसको लम्बाई एक हस्त की है। परिधि ३९ गुल और मुख काव्यास १३ मंगूल है। लता का वलय है। चमड़े से मढ़ा रहता है । चमड़े
१३१. के ० वासुदेवशास्त्री संगीतशास्त्र, पृ० २७३, २७४ ।
१३२, पद्म० ८२।३०, ८० १५४ ।
१३३. संगीतशास्त्र, ५०२७९, २८० ।
१३४. पद्म० ८० १५५ १