Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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मनोरजन : १२५
युद्धकोडा प्राचीनकाल में युद्ध बड़े उत्साह और शान के साथ लड़ा जाता था। यही कारण है कि इसे स्थान-स्थान पर पुलकीडा, युद्ध-महोत्सव आदि के रूप में अभिहित किया गया है। 4 . गुह में कम गर्मागे पतस गरिमा झण्ट के झुण्ड बनाकर अश्यधिक हर्ष से युक्त हो पास्त्र चमकाते हए रणभूमि में उछलते जा रहे थे । वे योद्धा परस्पर एक दूसरे को आच्छादित कर लेते थे, एक दूसरे के सामने दोहते थे, एक दूसरे से स्पर्धा करते थे, एक दूसरे को जीतते थे, उनसे जीते जाते थे, उन्हें मारते थे, उनसे मारे जाते थे और वीरगर्जना करते थे।" रावण ने बहरूपिणी विद्या में प्रवेश कर युद्धकीड़ा की। उसका सिर लक्ष्मण के तीक्षण बाणों से बार-बार कट जाता था तथापि बार-बार देवीप्यमान कुण्डलों से सुशोभित हो उठता मा। एक शिर करता था तो वो सिर उत्पन्न हो जाते थे और दो कटते थे तो उससे दुगुनी वृद्धि को प्राप्त हो जाते थे। दो भुजायें कटती थी तो चार हो जाती थीं, चार कटती थी तो भाउ हो जाती थीं। हआरों शिरों और अत्यधिक भुजाओं से घिरा रावण ऐसा मान
दिखाना, प्रदाह, मृगचक्र, कौए उड़ाना, धूल उड़ाना, रक की वृष्टि करना, मन्त्र के द्वारा दण्ड देने के लिए उपड़ा चलाना, किसी व्यक्ति को मुसा देना, द्वार खोल देना, किसी को गिरा देमा, उठा देना, जमाई लियामा, अचल कर देना, चिपका देना, रोगी बना देना, स्वस्थ बना देना, अंतर्धान कर देना आदि । उस समय शबर, चाण्डाल, द्रविड़, कलिज, पौड़, गान्धार आदि विविध इन्द्रजालों का प्रचलन देशभेद के अनुरूप बा (सूपगग ।२।२७)।
सासवीं पातान्दो के ऐन्द्र जालिक पृथ्वी पर चाद्र, आकाश में पति, जल में अग्नि, मध्याह में सार्यकाल, ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि बता रुपा सिद्ध, चारण, असुर आदि के सामूहिक नृत्य दिखला सकते थे। सबसे अधिक आश्चर्य सो इन्द्रजाल के द्वारा अन्त:पुर की अग्मिदाह का दृश्य दिखलाना था। इसमें तो वास्तविक अग्निदाह के समान कुछ जलता हुमा प्रतीत होता था (रत्नावली, कर्पूरमंजरी एवं दशकुमारचरित में भवन्ति सुन्दरी प्रकरण)। रामजी उपाध्याय : प्राचीन भारतीय साहित्य की सांस्क
तिक भूमिका, पृ० ९५४-९५६, ९५७ । ७५. पथः ७४४१ । ७६. आस्तृणत्यभिधान्ति म्पदन्ते निर्जयन्ती च ।
जीयन्ते ध्नन्ति हन्यन्ते कुर्वन्ति भटग जितम् ।। पद्म ७४४३ ।