Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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मनोरंजन : ११७
ने स्त्रियों के साथ निम्न २० प्रकार से क्रीड़ा की
प्रति कोप प्रकट कर,
किसी को प्रणाम कर, ताड़ित कर किसी का
किसी के पास से दूर
किसी को देखकर किसी को स्पर्धा कर, किसी के किसी के प्रति अनेक प्रकार की प्रसन्नता प्रकट कर, किसी के ऊपर पानी उछालकर, किसी को कर्णाभरण से धोखे से वस्त्र खींचकर किसी को मेखला से अधिकर हटकर, किसी को भारी डाट दिखाकर किसी के साथ सम्पर्क कर, किसी के स्तनों में कम्पन उत्पन्न कर किसी के साथ हँसकर किसी के आभूषण गिराकर, किसी को गुदगुदाकर, किसी के प्रति भौंह चलाकर किसी से छिपकर, किसी के समक्ष प्रकट होकर तथा किसी के प्रति अन्य प्रकार से विभ्रम
दिखाकर |
जलकोड़ा सांसारिका का एक उत्तम केन्द्रां जिस समय भरत संसार, शरीर और भोगों से विरक्त होकर वन जाने को उद्यत हुआ उस समय अन्य लोगों के साथ राम तथा लक्ष्मण को अनेक रानियों वहाँ आकर भरत से जलक्रीड़ा के लिए निवेदन करने लगीं । भरत उनको प्रार्थना को नहीं टाल सका और उनके साथ उसने जलक्रीड़ा की । २१
वनक्रीड़ा
प्रकृति में जो कुछ मनोरम है उसका अधिकांश नगर के यदि नागरिक को अपने जीवन को आनन्दवृत्तियों को बहुमुखी उसे नगर के बाहर प्रकृति के उत्संग में कीड़ा करनी चाहिए। स्थानों में वन की सर्वप्रथम गणना की जाती है । पद्मचरित के पंचम पर्व में महारक्ष विद्याधर का अपने अन्तःपुर के साथ क्रीड़ा करने के लिए प्रमद वन में जाने का उल्लेख है । वह वन कमलों से आच्छादित वापिकाओं से सुशोभित था ।
२०. दर्शनात् स्पर्शनात् कोपात् प्रसादाद्विविधोदितात् ।
प्रणामाहारिनिक्षेपादवतंस कसा उनात् ।। पद्म० १० । ७६ । संचनादंशुकाक्षेपान्मेखलादामबन्धनात् ।
बाहर होता है । करना है तो
ऐसे मनोरम
पलायान्महारावास संपर्कात् कुचकम्पनात् ॥ पद्म १०२७७ + हासाद् भूषणनिक्षेपात् प्रेरणा विलासतः ।
अन्तर्धानात् समुद्भूतेरन्यस्मान् सुविभ्रमात् ॥ पद्म० १०३७८ । रेमे बहुरसं तस्यां स मनोहर दर्शनः ।
आवृतो वरनारोभिर्देवोभिरिव वासवः । पद्म० १०१७९
२१ पद्म० ८३ ९०- १०८ ।