Book Title: Padmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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८६ : पधचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
कहा गया है ।५४१ बसीस हजार महाप्रतापी राजा थे । नगरों से सुशोभित मस्तीस हजार देश थे, देव लोग सवा जिनकी रक्षा करते थे, ऐसे चौदह रत्न ५४५ और छियानबे हजार स्त्रियां थीं ।५४३
पक्रवर्ती के बाद दूसरा स्थान नारायण तथा बलभद्र की गम्पदा का है । पद्यति विशेष रूप से काय, लगन और बलमा राम की सम्पयाओं और उनके कार्य-कलापों का वर्णन है। तदनुसार उनके अनेक द्वारों तथा उच्च गोपुरों से युक्त इन्द्र भवन के समान सुन्दर लक्ष्मी का निवासमत नन्द्यावर्त नाम का भवन था । ४४ किसी महागिरि की शिखरों के समान ऊँचा चतुःशाल नाम का कोट था, वैजयन्ती नाम की सभा थी । चन्द्रकान्त मणियों से निर्मित सुवीयो वाम की मनोहर शाला श्री, अत्यन्त ऊँचा तथा सब दिशाओं का अवलोकन कराने वाला प्रासादकूट' या, विन्ध्यगिरि के समान ऊँचा बर्वमानक नाम का प्रेक्षागृह था, अनेक प्रकार के उपकरणों से युक्त कार्यालय थे, उनका गर्भगृह कुमकुटी के अण्डे के समान महान् आश्चर्यकारी था, एक ग्वाम्भे पर खड़ा था और कल्पवृक्ष के समान मनोहर था। उस गर्भगृह को चारों ओर से घेरकर
सर्प निधि, शस्या, आसन आदि नाना प्रकार की वस्तुओं तथा घर के उपयोग में आने वाले नाना प्रकार के भानों की पात्र थी। छठवी सर्यरलनिधि, इन्द्रनीलमणि, महानीलमणि, वनमणि श्रादि बड़ी-बड़ी शिखा के धारक उत्तमोत्तम रत्नों से परिपूर्ण थी। सातवीं शंख नामक निधि भेरी, शस्ख, नगाड़े, वीणा, झल्लरी और मृदंग आदि बाघात से तथा फूंककर बजाने योग्य नाना प्रकार के पाजों से पूर्ण थी । आठवी पानिधि पाटाम्बर, पीन, महानेत्र, दुकूल, उत्तम कम्बल तथा नाना प्रकार के रंग• बिरंगे वस्त्रों से परिपूर्ण थी। नौवीं पिंगल निधि कड़े तथा कटिसूत्र आदि स्त्री-पुरुषों के आभूषण और हाथी, घोड़ा आदि के अलंकारों से परिपूर्ण थी। ये नौ को नौ निधिया कामबुष्टि नामक गृहपति के आधीन थीं और सदा चक्रवर्ती के समस्त मनोरथों को पूरा करती थीं।
जिनसेन : हरिवंश पुराण ११।११०-१२३ । ५४१. पद्म० ४।६२ । ५४२. भरत पक्रवती के चक्र, छत्र, खंग, दण्ड, काकिणी, मणि, चर्म, सेनापति,
गृहपति, हस्ती, अश्व, पुरोहित, स्थपति और स्त्री ये चौदह रत्न थे। इनमें से प्रत्येक की एक-एक हजार वेव रक्षा करते थे। जिनसेन : हरि
वंशपुराण, ११।१०८-१०९ । ५४३. प० ४।६४-६६ ।
५४४. पम० ८३४